भूमिका

मैं जब १० वर्ष का था (सन् १९४१ ई.) उस समय मेरी कक्षा छः की हिन्दी पुस्तक में एक पाठ ताजमहल पर था। जिस दिन वह पाठ पढ़ाया जाना था उस दिन कक्षा के सभी बालक अत्यधिक उल्लसित थे। उस पाठ में ताजमहल की भव्यता-शुभ्रता का वर्णन तो था ही, उससे अधिक उससे जुड़े मिथकों का वर्णन जिन्हें हमारे शिक्षक ने अतिरज्जित रूप से बढ़ा दिया था। मेरे बाल मन पर यह बात पूर्णरूप से अंकित हो गई कि यह विश्व प्रसिद्ध ताज बीबा का रौजा (इस नाम से ही वह उन दिनों प्रसिद्ध था) मुगल सम्राट्‌ शाहजहाँ ने बनवाया था।

आठ वर्ष और बीत गये। सन्‌ १९४१ ई. में मैं अपने श्वसुर के साथ एक विशेष कार्य से जीवन में पहली बार आगरा आया। वह विशिष्ट कार्य हम दोनों के मन पर इतना अधिक प्रभावी था कि मार्ग में एक बार भी यह ध्यान नहीं आया कि इसी आगरा में विश्व प्रसिद्ध दर्शनीय ताजमहल है। कार्य हो जाने पर जब हम लोग बालूगंज से आगरा किला स्टेशन की ओर लौट रहे थे तो लम्बी ढलान के नीचे चौराहे से जो एकाएक दाहिनी ओरदृष्टि पड़ी तो सूर्य की आभा में ताजमहल हमारे सम्मुख अपनी पूर्ण भव्यता में खड़ा था। हम दोनों कुछ क्षण तो स्तब्ध से खड़े रहे गये, तदुपरान्त किसी साईकिल वाले की घंटी सुनकर ह लोगों को चेत हुआ।

जहाँ पर हम लोग खड़े थे वहाँ पर चारों ओर की सड़कें चढ़ाई पर जाती थीं। ऐसा प्रतीत होता था कि दाहिनी ओर चढ़ाई समाप्त होते ही नीचे मैदान में थोड़ी दूर पर ही ताजमहल  है, अतः हम लोग उसी ओर बढ़ लिये। ऊपर पहुँच कर यह तो आभास हुआ कि ताजमहल वहाँ से पर्याप्त दूर है, परन्तु गरीबी के दिन थे, अस्तु हम लोग पैदल ही दो मील से अधिक का मार्ग तय कर गये। उन दिनों ताजमहल दर्शन के लिये टिकट नहीं लेना पड़ता था। और गाइड करने का तो प्रश्न ही नहीं था, परन्तु जिन लोगों ने गाइड किये हुए थे लगभग उनके तसाथ चलते हुए हमने उनकी बबकवास र्पाप्त सुनी जो उस दिन तो अच्छी ही लगी थी।

उस प्रथम दर्शन में ताजमहल मुझे अपनी कल्पना से भी अधिक भव्य तथा सुन्दर लगा था। उसकी पच्चीकारी तथा पत्थर पर खपुदाई कटाई का कार्य अद्‌भुत था, फिर भी मुझे एक दो बातें कचौट गई थीं। बुर्जियों, छतरियों, मेहराबों में स्पष्ट हिन्दू-कला केदर्शन हो रहे थे। मुखय द्वार के ऊपर की बनी बेल तथा कलाकृति उसी दिन मैं कई मकानों के द्वार पर आगरा में ही देख चुका था। मैंने अपने श्वसुर जी से अपनी शंका प्रकट की तो उन्होंने गाइडों की भाषा में ही शाहजहाँ के हिन्दू प्रिय होने की बात कह कर मेरा समाधान कर दिया, परन्तु मैं पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं हुआ एवं मेरे अन्तर्मन में कहीं पर यह सन्देह बहुत काल तक प्रच्छन्न रूप में घुसा रहा।

१८ मार्च सन्‌ १९५४ को मेरी नियुक्ति आगरा छावनी स्टेशन पर स्टेश्न मास्टर श्रेणी ममें हुई । तब से आज तक मैं आगरा में हूँ, इस कारण ताजमहल को जानने, समझने में मुझे पर्याप्त सुविधा मिली।

आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व समाचार-पत्रों में मैंने पढ़ा कि किसी लेखक (संभवतः श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक) ने ताजमहल को हिन्दू मन्दिर सिद्ध करने का प्रयास किया है। उक्त लेख में तथ्यों को तो दर्शया था, परन्तु उसमें प्रमाणों का अभाव था, अस्तु। उससे मुझे अधिक प्रेरणा नहीं मिल सकी। इसके कुछ वर्ष पश्चात्‌ एक दिन ज्ञात हुआ कि श्री ओक जी सायं ७ बजे स्थानीय इम्पीरियल होटल में प्रबुद्ध नागरिकों के सम्मुख ताजमहल पवर वार्त्ता करेंगे। मैं उस दिन गया और श्री ओक को लगभग डेढ़घण्टे बोलते सुना। उनके भाषण के पश्चात्‌ ऐसा प्रतीत हुआ कि ताजमहल जैसे यमुना नदी (उस समय नदी ीारी रहती थी) से लेकर कलश तक मिथ्याचार के कलुष से निकल कर अपनी सम्पूर्ण कान्ति से देदीप्यमान हो उठा हो। भाषण के पश्चात्‌ मैं स्वयं श्री ओक जी से मिला तथा उन्हें ताजमहल की दो विसंगतियों से अवगत कराया। ओक जी मुझसे प्रभावित हुए तथा मेरा नाम पता लिख ले गये।

सन्‌ १९७५ ई. में एक दिन श्री ओक जी से पता लेकर इंग्लैंड से भारतीय मूल के अभियन्ता श्री वी. एस. गोडबोले तथा आई. आई. टी कानपुर के प्रवक्ता श्री अशोक आठवले आये। वे नई दिल्ली से पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक का अनुज्ञापत्र ले कर आये थे जिसके अनुसार विभाग को उन्हें वे सभी भाग खोल कर दिखाने थे जो साधारणतया सामान्य जनता के लिये बन्द रखे जाते हैं। श्री गोडबोले ने मुझसे भी ताजमहल देखने के लिये साथ चलने का आग्रह किया। मैंने दो दिन के लिये अवकाश ले लिया तथा अगले दिन उन दानों के साथ ताजमहल गया। कार्यालय में नई दिल्ली से लाया गया अनुज्ञापत्र देने पर वहां से एक कर्मचारी चाभियों का एक गुच्छा लेकर हमारे साथ कर दिया गया। उसके साथ हम लोगों ने पहले मुखय द्वारके ऊपर का भाग देखा। तत्पश्चात्‌ ताजमहल के ऊपर का कक्ष उसकी छत एवं गुम्बज के दोनों खण्डों को देखा। नीचे आकर ताजमहल के नीचे बने कमरों तथा पत्थर चूने से बन्द कर दिये गये मार्गों आदि को देख।ज्ञ एक स्थल तो ऐसा आया जहाँ पर यदि हम लोग अवरुद्ध मार्ग को फोड़ कर आगे बढ़ सकते तो कुछ गज ही आगे चलने पर नीचे वाली कब्र की छत के ठीक नीचे होते और उक्त कब्र हमारे सर से लगभग तीस फुट ऊपर होती, अर्थात्‌ कब्र के ऊपर भी पत्थर तथा कब्र के नीचे भी पत्थर। पत्थर के ऊपर भी कमरा तथा पत्थर के नीचे भी कमरा। है न चमत्कार। मात्र इतना सत्य ही संसार के समक्ष उद्‌घटि कर दिया जाए तो ताजमहल विश्व का आठवाँ आश्चर्य मान लिया जाए।तदुपरान्त हमें बावली के अन्दर के जल तक के सातों खण्ड दिखाये गये। मस्जिद एवं तथाकथित जबाव के ऊपर के भाग एवं उनके अन्दर के भाग, बुर्जियों के नीचे हाते हुए पिछली दीवार में बने दो द्वारों को खोल कर चमुना तक जाने का मार्ग हमें दिखाया गया।

यहाँ पर दो बातें स्पष्ट करना चाहूँगा-
(१) शव को कब्र में दफन करने का मुखय उद्‌देश्य यह होता है कि मिट्‌टी के सम्पर्क में आकर शव स्वयं मिट्‌टी बन जाए। इसकी गति त्वरित करने के लिये उसपर पर्याप्त नमक भी डाला जाता है। यदि शव के नीचे तथा ऊपर दोनों ओर पत्थर होंगे तो वह विकृत हो सकता है, परन्तु मिट्‌टी नहीं बन सकता।

(२) यमुना तट पर स्थित उत्तरी दीवार के पूर्व तथा पश्चिमी सिरों के समीप लकड़ी के द्वार थे। इन्हीं द्वारों से होकर हम लोग अन्दर ही अन्दर चलकर ऊपर की बुर्जियों में से निकले थे। अर्थात्‌ भवन से यमुना तक जाने के लिए दो भूमिगत तथा पक्के मार्ग थे। इन्हीं द्वारा में से एक की चौखट का चाकू से छीलकर अमरीका भेजा गया था जहाँ पर उसका परीक्षण किया गया था। ६ ुरवरी १९८४ को देश एवं संसार के सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ कि वह लकड़ी बाबर के इस देश में आने से कम से कम ८० वर्ष पूर्व की है। भरत सरकार ने इसे समाचार का न तो खण्ड ही किया और न ही कोई अन्य प्रतिक्रिया व्यक्त की, परन्तु शाहजहाँ के समान उसने एक कार्य त्वरित किया। उन दोनों लकड़ी के द्वारों को निकाल कर पता नहीं कहाँ छिपा दिया तथा उन भागों को पत्थर के टुकड़ों से समीमेंट द्वारा बन्द करा दिया।

ताजमहल परिसर के मध्य में स्थित फौआरे के ऊँचे चबूतरे के दाहिनी-बायें बने दोनों भवनों का नाम नक्कार खाना है, अर्थात्‌ वह स्थल जहाँ परवाद्य-यन्त्र रखे जाते हों अथवा गाय-वादन होता हो। इन भवनों पर 'नक्कार खाना' नाम की प्लेट भी लगी थी। जब हम लोगों ने इन बातों को उछाला कि गम के स्थान पर वाद्ययन्त्रों का क्या काम ? तो भारत सरकार ने उन प्लेटों को हटा कर दाहिनी ओर का भवन तो बन्द करवा दिया ताकि बाईं ओर के भवन में म्यूजियम बना दियज्ञ। इस म्यूजिम में हाथ से बने पर्याप्त पुराने चित्र प्रदर्शित हैं जो एक ही कलाकार ने यमुना नदी के पार बैठ कर बनाये हैं। इन चित्रों में नीचे यमुना नदी उसके ऊपर विशाल दीवार तथा उसके भी ऊपर मुखय भवन दिखाया गया है। इस दीवार के दोनों सिरों पर उपरोक्त द्वार स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। अभी तक मैं चुप रहा हूं, परन्तु यह लेख प्रकाशित होते ही भरत सरकार अतिशीघ्र उक्त दोनों चित्र म्यूजियम से हटा देगी।

दो दिनों तक हम लोगों ने ताजमहल का कोना-कोना छान मारा। हम लोग प्रातः सात बजे ताजमहल पहुँच जाते थे तथा रात्रि होने पर जब कुछ दिखाई नहीं पड़ता था तभी वापस आते थे। इस अभियान से मेरा पर्याप्त ज्ञानवर्धन हुआ तथा और जानने की जिज्ञासा प्रबल हुई। मैंने हर ओर प्रयास किया ओर जहाँ भी कोई सामग्री उपलब्ध हुई उसे प्राप्त करनेका प्रयास किया। माल रोड स्थित स्थानीय पुरातत्त्व कार्यालय के पुस्तकालय में मैं महीनों गया। बादशाहनामा मैंने वहीं पर देखा। उन्हीं दिनों मुझे महाभारत पढ़ते हुए पृष्ठ २६२ पर अष्टावक्र के यह शब्द मिले, 'सब यज्ञों में यज्ञ-स्तम्भ के कोण भी आठ ही कहे हैं।' इसको पढ़ते ही मेरी सारी भ्रान्तियाँ मिट गई एवं तथाकथित मीनारें जो स्पष्ट अष्टकोणीय हैं, मुझे यज्ञ-स्तम्भ लगने लगीं।

एक बार मुझे नासिक जाने का सुयोग मिला। वहाँ से समीप ही त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग है। मैं उस मन्दिर में भी दर्शन करने गया। वपस आते समय मेरी दृष्टि पीठ के किनारे पर अंकित चित्रकारी पर पड़ी। मैं विस्मित होकर उसे देखता ही रहा गया। मुझे ऐसा लग रहा था कि इस प्रकार की चित्रकारी मैंने कहीं देखी है, परन्तु बहुत ध्यान देने पर भी मुझे यह याद नहीं आया कि वैसी चित्रकारी मैंने कहां पर देखी है। दो दिन मैं अत्यधिक किवल रहा। तीसरे दिन पंजाब मेल से वापसी यात्रा के समय एकाएक मुझे ध्यान आया कि ऐसी ही चित्रकारी ताजमहल की वेदी के चारों ओर है। सायं साढ़े चार बजे घर पहुँचा और बिना हाथ-पैर धोये साईकिल उठा कर सीधा ताजमहल चला गया। वहाँ जाकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही किताजमहल के मुखय द्वार एवं तत्रयम्बकेश्वर मन्दिर की पीठ की चित्रकारी में अद्‌भुत साम्य था। कहना न होगा कि त्रयम्बकेश्वर का मन्दिर शाहजहाँ से बहुत पूव्र का है।

सन्‌ १९८१ में मुझे भुसावल स्थिल रेलवे स्कूल में कुछ दिन के लिय जहाना पड़ा। यहाँ से बुराहनुपर मात्र ५४ कि. मी. दूर है तथा अधिकांश गाड़ियाँ वहाँ पर रुकती हैं। एक रविवार को मैं वहाँ पर चला गया। स्टेशन से तांगे द्वारा ताप्ती तट पर जैनाबाद नामक स्थान पर मुमताजमहल की पहली कब्र मुझे अक्षुण्या अवस्था में मिली। वहाँ के रहने वाले मुसलमानों ने मुझे बताया कि शाहजहाँ की बेगम मुमताजमहल अपनी मृत्यु के समय से यहीं पर दफन है। उसकी कब्र कभी खोदी ही नहीं गई और खोद कर शव निकालने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता, क्योंकि इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता। किसी-किसी ने दबी जबान से यह भी कहा कि वे यहाँ से मिट्‌टी (खाक) ले गये थे। सन्‌ १९८१ ई. तथा सन्‌ १९८६ ई. के मेरे भुसावल के शिक्षणकाल में मैंने सैकड़ों रेल कर्मियों को यह कब्र दिखाई थी। श्री हर्षराज आनन्द काले, नागपुर के पत्र दिनांक ०८/१०/१९९६ के अनुसार उनके पास तुरातत्व विभाग के भोपाल कार्यलय का पत्र है जिसके अनुसर बुरहानपुर स्थितमुमतालमहल की कब्र आज भी अक्षुण्या है अर्थात्‌ कभी खोदी ही नहीं गई।

पिछले २२ वर्ष से मैं ताजमहल पर शोधकार्य तथा इसके प्रचार-प्रसार की दृष्टि से जुड़ा रहा हूँ। इस पर मेरा कितना श्रम तथा धन व्यय हुआ इसका लेखा-जोखा मैंने नहीं रखा। इस बीच मुझे अनेक खट्‌टे-मीठे अनुभवों से दो-चार होना पड़ा है। उन सभी का वर्ण करना तो उचित नहीं है, परन्तु दो घटनाओं की चर्चा मैं यहाँ पर करना चाहूँगा।

श्री वी. एस. गोडबोले के सौजन्य से मेरे पास इंग्लैण्ड से अनेक व्यक्ति ताजमहल दिखा देने का आग्रह ले कर आये। इस प्रकार मेरी प्रसिद्धि में वृद्धि हुई क्योंकि आम भारतीय आज भी विदेशियों को अति महत्व देता है। एक दिन मुझे सूचित किया गया कि रेलवे बोर्ड के एक बहुत बड़े अधिकारी सपरिवार ताजमहल देखने आ रहे हैं तथा उनका आदेश है कि गाइड के रूप में मुझे ही साथ भेजा जाए। दूसरे दिन ताज एक्सप्रेस से उक्त अधिकारी (एक कल्पित नाम रख लेते हैं श्री आयंगर) उनकी पत्नी एवं उनकी साली आये। पति पत्नी ४५'५० वर्ष तथा साली लगभग २४-२५ वर्ष की थी। हम लोग ताजमहल पहुँच गये। ज्योही मैंने अपनी परिचित शैली में ताजमहल दिखाना प्रारम्भ किया त्योंही श्रीमतीआयंगर ने उसे काटना प्रारम्भ कर दिया। No! No! it is clear Mughal style.... (नहीं ! नहीं यह तो स्पष्ट मुगल कला है..........आदि आदि) यद्यपि श्री आयंगर चुप थे पर स्पष्ट पता लग रहा था कि वे दब्बू तथा अपनी पत्नी से प्रभावित थे। उस महिला ने मुझे एक भीतर्क नहीं रखने दिया। अधिकारी की पत्नी से मैं बहस भी तो नहीं कर सकता था। अतः मैंने शीघ्र से शीघ्र उनके पीछा छुड़ाना उचित समझा तथा कुछ दर्शनीय स्थलों को छोड़ता हुआ मैं उन्हें लेकर सीधा कब्र वाले कक्ष में प्रवेश कर गया। अचानक आश्चर्यजनक घटना घट गईं अब तक चुपचाप चलने वाली श्रीमती आयंगर की बहन दौड़ कर एक स्तम्भ से चिपट गई और बोली, 'Look here Didi. this is Kalyan Stambham, a typical of our south Indian temples.' (इधर देखों दीदी ! यह कल्याण स्तम्भम्‌ है, जो अपने दक्षिण भारत के मन्दिरों की विशिष्ट है।) वह वाचाल महिला चुप साध गई। कहना न होगा कि तत्पनश्चात मैंने उन्हं सूर्य चक्र ''ऊँ'' आदि वह सारे स्थल दिखाये जो मैं छोड़ गया था। विदा होते समय श्रीमती अयंगर ने अपने व्यवहार के लिये न केवल खेद व्यक्त किया अपितु क्षमता याचना भी की तथा थंजावूर आने का निमंत्रण भी दिया, पर मैं जीवन-पर्यन्त उनकी अनुजा का ऋणी रहूँगा।

आगरा के प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री छेदीलाल जी अग्रवाल के सौजन्य से एक दिन दोपहर दो बजे ताजमहल दर्शन का कार्यक्रम बना। हम लोगा ताजमहल के मुखय द्वार के निकट एकत्र हुए तो ज्ञात हुआ कि कुछ लोग अभी नहीं आये हैं, अस्तु। उनकी प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया गया। श्री छेदीलाल जी उन दिनों अस्वस्थ चल रहे थे, अतः मैंने उन्हें सलाह दी कि आप हृदय रोगी हैं अतः द्वार के अन्दर जाकर छाया में बैठ कर हम लोगों की प्रतीक्षा करें। श्री छेदीलाल जी चले गये। कुछ देर पश्चात्‌ सबसके आ जाने पर जब हम लोगा अन्दर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि हृदय रोगी श्री छेदीलाल जी भागत हुए हमारी ओर आ रहे हैं। आते ही हाँफते हुए उन्होंने मुझसे कहा, 'पाण्डेय जी ! पाण्डेय जी !! मैंने अभी सैकड़ों हजारों की संखया में गणेश प्रतिमायें देखी हैं।'' मैंने मुस्कारते हुए उनसे कहा, ''आपके गणेश दर्शन को सार्थक करते हुए मैं आज गणेश दर्शन से ही ताजमहल दर्शन का श्रीगणेश करूँगा। यद्यपि श्री छेदीलाल जी का प्राँगण में गणेश प्रतिमाएं होने का तो ज्ञान था, परन्तु निश्चित स्थान उन्हें ज्ञात नहीं था। उनकी खोली दृष्टिने वह खोज लिया जो लाखों व्यक्ति नित्य ताजमहल निहार कर भी न खोज पाने के कारण गणेश-दर्शन से वंचित रह जाते हैं।

इस पुस्तक के लेखन में मुझे अनेक सज्जनों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त हुआ है और उनके प्रति यदि आभार प्रकट न किया जाए तो यह अशिष्टता ही नहीं कृतघ्नता भी होगा। सबसे पहले मैं आभारी हूँ श्री पुरुषोत्म नागेश जी ओक का जिन्होंने मुझे ताजमहल का सच्चा स्वरूप बताया। श्री वी. एस. गोडबोले : इंग्लैण्ड, श्री अशोक आठवले : कानपुर, श्री विजय बेडेकर : ठाणे एवं पं. भास्कर गोपाल केसकर : भाग्यनगर का। इन भी बन्धुओं का मुझे विशेषसहयोग रहा। न सभी सज्जनों को मैं नमन करता हूँ। इसके अतिरिक्त मैं श्री गोपाल गोडसे तथा सूर्य भारतीय पकाशन का हृ से आभारी हूँ जिनके सक्रिय सहयोग से यह पुस्तक अपनके कर-कमलों तक पहुँ सकी है। सम्भव है कुछ नाम मुझे विस्मृ हो गये हों पर उन सभी महानुभावों का भी मै। आभार व्यक्त कर रहा हूँ जिनका प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष सहयोग मुझे मिलता रहा है और उनके नाम मैं न देने पाने के कारण लज्जित भी हूँ, क्षमा प्रार्थी भी हूँ। मेरे पूरे परिवार जिसमें मेरे पुत्र, पुत्र-वधुएँ, कन्या, दामाद एवं उनकीसंतानें भी सम्मिलित हैं के अतिरिक्त सहधर्मिणी का सहयोग भी मुझे आशातीत मिला। इन सभी को मैं तन्मय होकर शुभार्शीवाद दे रहा हूँ। सबसे अन्त में मैं उन नवयुवक की प्रशंसा करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ जिसने लगातार उकसा-उकसा कर मुझे इस पुस्तक के प्रकाश कराने के लिए बाध्य कर दिय।ज्ञ उस नवयुवक का नाम है पं. अवधेश भार्गव, गुरसहायगंज (जिला : फरुर्खाबाद, उ. प्र.)

आगरा : शरद पूर्णिमा (गुरूवार) युगाब्द ५०९९
(आश्विन शुक्ल १५ वंवत्‌ २०५४)
दि. १६ अक्टूबर, १९९७
विनीत
पं. कृष्णकुमार पाण्डे
९७, बालाजीपुरम्‌ आगरा-१० (उ. प्र.)
पिन-२८२ ०१०
दूरभाष : ०५६२  २२११०१५
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