१३ अर्जुमन्द बानों बेगम

ताजमहल की नायिका अर्जुमन्द बानो बेगम का जन्म एक संभ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम खवाजा अबुलहसन यामिन-उद्‌-दौल आसफखाँ था जो मिर्जा गियाथबेग एतिमादुद्‌दौला के पुत्र तथा प्रखयात सम्राज्ञी नूरजहाँ के भाई थे। इस प्रकार अर्जुमन्द बानों नूरजहाँ की भतीजी एवं मिर्जा की पौत्री थीं। इनके जन्म, मृत्यु आदि की तिथ्यिों के बारे में अनेक भ्रान्तियाँ हैं, और उन तिथ्यिों में अनेक वर्षों का अन्तर है। हमारे लेख की कथावस्तु पर इन भ्रान्तियाँ हैं, और उन तिथ्यिों में अनेक वर्षों का अन्तर है। हमारे लेख की कथावस्तु पर इन भ्रान्तियों के कारण कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता है।, अतः हम पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा १९८२ में प्रकाशित पुस्तिका 'ताज म्युजियम' में दी हुई तिथ्यिाँ ही प्रामाणिक मान लेते हैं, जिसके अनुसार इनका जन्म १४ रजब १००१ हिजरी तदनुसार ६ अप्रैल सन्‌ १५९३, शाहजहादा खुर्रम केसाथिविवाह ९ रवी उल अव्वल १०२१ हि. तदनुसार ३० अप्रैल सन्‌ १६१२ ई. एवं चौदहवीं सन्तान को जन्म देते समय बरहानपुर में मृत्यु १७ जिल्काद १०४० हिजरी तदनुसार ७ जून सन्‌ १६३१ ई. को हई थी।

मुखय विडम्बना यह है कि किंवदन्तियों ने इनके बारे में इतिहास में स्थान पा लिया है एवं बिना किसी ठोस प्रामाणिक आधार पर अथवा बिना कोई खोजबीन किये उनको आँख बन्द कर स्वीकार कर लिया गया है। कहा जाता है कि यह अनन्य सुन्दर थी एवं शाहजहाँ इन्हें अत्यन्त प्रेम करता था। इनका विवाह शाहजहादा खुर्रम से राजनीतिक कारणों से हुआ था। अतः इनके युवराज पत्नी के रूप में चयन में इनकी सुन्दरता ही प्रमुख कारण थी। इसका कोई आधार नहीं है, फिर भी नूरजहाँ की भतीजी होने के कारण इनके सुन्दर होने में सन्देह करने का भी कोई पर्याप्त कारण नहीं है, अतः हम बिना हिचक स्वीकार कर लेते हैं कि यह सुन्दरी थीं। इनके सुन्दर होने के कारण शाहजहाँ इन पर जान न्यौछावर करता था, यह मानने के लिये हम फिर भी विवश नहीं है। शाहजहाँ के हरम में ५,००० से अधिक पत्नियाँ उप-पत्नियाँ आदि थीं। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक विवाहित महिलाओं के साथ शाहजहाँ के कुत्सित सम्बन्धों सेइतिहास के पृष्ठ काले हो रहे हैं। शाहजहाँ के विवाहोत्तर सम्बन्ध न केवल इनके जीवनकाल में थे, अपितु इनकी मृत्यु के उपरान्त तो वह अत्यन्त उच्दृंखल हो गया था।

मुमताज़-उज-जमानी उर्फ अर्जुमन्द बानों का देहान्त अपनी चौहदवीं सन्तान के जन्मोपरान्त लगभग चालीस वर्ष की आयु में हुआ था अर्थात्‌ वह यौवन की सीमा लाँघ कर अधेड़ावस्था को प्राप्त हो चुकी थीं, फिर भी यदि शाहजहाँ के अन्य युवतियों से सम्बन्ध न रहे होते तब तो यह मानने का कुछ कारण हो सकता था कि शाहजहाँ इनके प्रति पूर्ण समर्पित थ। इतने पर भी कोई विवशता न होते हुए भी हम कुछ देर के लिये यह स्वीकार कर लेते हैं कि शाहजहाँ इनके प्रति अत्यधिक अनुरक्त था तथा इनकी अन्तिम इच्छा पूरी करने के लिये कुछ भी कर सकता था। वास्तव में पुरुष के लिये अपनी प्रियतमा की इच्छा पूर्ण करना विशेष आनन्दायक होता है और यदि वह अन्तिम इच्छा हो तो पूर्ण सन्तुष्टि प्राप्त होती है। पाठकों की सूचना के लिये एक बार यह पुनः स्पष्ट कर दूं कि शाहजादा खुर्रम एवं मुमताज के प्रेम के चर्चे न तो विवाह पूर्व के उपलब्ध हैं तथा न ही विवाह के पश्चात्‌ के, जैसे कि नूरजहाँ एवं जहाँगीर के प्रेम प्रकरण उपलबधहैं।

यह स्वीकार कर लेने के उपरान्त कि सम्राज्ञी सुन्दरी अथवा अतीव सुन्दरी थी तथा इस आयु में भी शाहजहाँ उन पर पूर्ण रूप से अनुरक्त ही नहीं पागलपन की सीमा तक समर्पित थ, अब तीसरी किंवदन्ती पर भी विचार कर लें। कहते हैं कि मरते समय इन्होंने सम्राट्‌ शाहजहाँ से वचन लिया था कि वह इनकी कब्र के ऊपर एक भव्य स्मारक बनवायेगा।

अधिक विवाद में न जाकर हम पाठकों के सन्मुख वह दृश्य लाना चाहते हैं, जो मुमताज उज ज़मानी के अन्तिम क्षण थे।

भारत सरकार का पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा प्रकाशित 'ताज म्यूजियम' (सन्‌ १९८२) के पृष्ठ ३ तक हम पाठकों को ले जाना चाहेंगे। इस पृष्ठ पर दोनों के अन्तिम मिलन का बड़ा ही मार्मिक् एवं सटीक विवरण दियाहै। विद्वान्‌ लेखक स्वीकार करता है कि लोककथानुसार मुमताज ने शाहजहाँ से एक भव्य स्मारक बनाने की विनती की थी एवं उनके आपसी प्रेम को ध्यान में रखते हुए इस विश्वास को बल भी मिला, परन्तु उक्त पुस्तक के लेखक-द्वय के अनुसार शाहजहाँ की दरबारी पुस्तकों के अनुसार, 'शाहजादी जहाँनारा ने सम्राट्‌ शाहजहाँ को अपनी माता के अन्तिम समय के आगमन की सूचना देते हुए उसे अन्दर आने को कहा। इस भयानक समाचार को सुन शाहजहाँअत्यन्त उद्विग्न हो गया, और जब वह अपनी विश्वासपात्र जीनसंगिनी की शैया के समीप हपुँचा तब रानी अतीव अशान्त तथा आवेग से पूर्ण थी। उसने एक दृष्टि में ही समझ लिया कि यह उन दोनों का अन्तिम मिलन है एवं अब विछोह का लम्बा समय सम्मुख है। उस कुलीन वंश की सम्राज्ञी, जिसका हृदय दुःख एवं मस्तिष्क पश्चात्तापपूर्ण था, ने विलपते हुए विदा माँगी एवं अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट की। वह अन्तिम श्वास तक सम्राट से अपनी संतानों के प्रति दया एवं कृपा की विनय करती रही एवं अपने माता-पिता का ध्यान रखने का आग्रह करती रही थी।'

तो यह थी सम्राज्ञी की अन्तिम इच्छा जो 'शाहजहाँनामा' जैसी पुस्तकों में लिखी है। इस सत्य से परिचित होने के पश्चात्‌ हम उस महान्‌ आत्मा के प्रति नमन करते हैं कि उसने स्वयं के लिये कुछ नहीं मांगा था यहाँ तक उसे याद रखने तक का आग्रह नहीं किया था। उसके लिये या उसके नाम पर यादगार बनाना तो दूर की बात थी। स्पष्ट है कि जब सम्राज्ञी को इस भव्य भवन में दफनामा प्रचारित किया गया तो कारण के रूप में शाहजहाँ की साम्राज्ञी के प्रति असीमित अनुराग एवं सम्राज्ञी से उसकी अन्तिम अच्छिा का प्रदर्शन आदि शाही चाटुकारों के लिये सुन्दर विषय थे जिसका रसिकों पर हीनहीं जनसाधारण पर अच्छा प्रभाव पड़ा एवं वह शाहजहाँ द्वारा इस अनुपम भवन को हथ्यिाने के लिये अपनाये गये कुत्सित षड्‌यन्त्र आदि से अनभिज्ञ ही रहा।

हम एक बार पुनः उन पाठकों की सन्तुष्टि के लिये स्वीकार कर लेते हैं कि अनन्य सुन्दरी एवं अपनी सबसे चहेती प्रियतमा सम्राज्ञी की अन्तिम इच्छा पालन करने हेतु न सही, परन्तु शाहजहाँ ने अपनी इच्छा से ही यह भव्य स्मारक बनवाया होगा। पाठकों की सुविधा हेतु हम यहाँ पर यह भी स्पष्ट कर दें कि इतिहासकारों के अनुसार आगरा स्थिति लाल किले में दीवाने-ए-आम, दीवान-ए-खास तथा शीमहल आदि भवन शाहजहाँ द्वारा सन्‌ १६३४ से सन्‌ १६३८ ई. तक बनवाये गये थे अर्थात्‌ सम्राज्ञी की मृत्यु के कई वर्षों बाद इनका निर्माण किया गया था। अब प्रश्न यह उठता है कि जीवन काल में शाहजहाँ अपनी मलिकाये-जान एवं जहान अर्जुमन्द बानों बेगम को रखता कहाँ पर था। उसे सजा संवार कर बैठाने के लिये उसने लगभग १८ वर्ष के दाम्पत्य जीवन में जिसमें उसके राज्यकाल के भी तीन वर्ष सम्मिलित हैं उसने कौन-सा राजप्रसाद बनवाया था। पाठको को याद दिला दें कि जो सूची महलों एवं भवनों की डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कर्मचारी ने बनाई थी उसमें राजा केप्रासाद का कोई उल्लेख नहीं है। इसमें सम्राज्ञी के पिता आसफखाँ का भवन अवश्य है। क्या यह सब हमें स्वीकार करने को विवश नहीं करता कि यह सुन्दरी भी सम्राट्‌ की अन्य नवयुवती सुन्दरियों सहित लाल किले की उन्हीं दड़बेनुमा किसी कोठरी में जीवनयापन करती थी।

स्पष्ट है कि जो शाहजहाँ, शाहजादा, युवराज एवं सम्राट्‌ होते हुए भी अपनी विश्व सुन्दरी को एक साधारण से निवास-स्थल अथवा महल के अतिरिक्त कुछ न दे सका उसने अपनी उसी सम्राज्ञी की स्मृति को अक्षुण्ण रखने हेतु एक भव्य स्मारक बनवाया था, यह सुनने में तो कर्णप्रिय प्रतीत हो सकता है, परन्तु तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।

समसामयिक सुन्दर नारी-स्वभाव की मनोवैज्ञानिक विवेना के अनुसार यह सम्भव है तथा स्वाभाविक भी है कि ईर्ष्या के वशीभूत होकर अर्जुमन्द बनानो ने इस भवन को प्राप्त करने की इछा अपने जीवन काल में एकाधिक बार की हो। राज्य कर्मचारी का भव्य भवन सम्राज्ञी की आँखें में न खटके यह अकल्पनीय है। इस दुराशा एवं हताशा की दशा में दोनों में प्रेम-मनुहार-रूठना-मनाना आदि भी चलता रहा होगा। शाहजहाँ ने, (स्वाभाविक है) उचित अवसर आने तक प्रतीक्षा करने की कहकर सम्राज्ञी को बहलायाफुसलाया भी होगा। अन्ततः वह सुयोग आया भी, परन्तु रानी की मृत्यु के पशत्‌ ही एवं रानी के शव के रूप में दरबारयिों, चाटुकारों, चापलूसों एवं खलनायकों का षड्‌यन्त्र रंग लाया। कुछ ने शाहजहाँ को उकसाया, कुछ ने जयसिंह को समझाया बुझाया और इस सब नाटक की परिणति उस भव्श्य भवन के बलात्‌ अधिकार में हुई। ऊपर तथा नीचे की दो कब्रें चिल्ला-चिल्ला कर कह रही हैं, वह करुण कहानी। किसी के पास क्या उत्तर है ? ऊपर-नीचे दो कब्रें क्योंबनाई गई थीं ? नीचे की कब्र छिपी एवं गोपनीय थी। ऊपर की कब्र धोखा देने के लिये झूठी बनाई गई थी कि यदि एकाएक विद्रोह हो तो वास्तविक कब्र सुरक्षित रहे एवं विप्लवी ऊपर की नकली कब्र तोड़-फोड़ कर ही मन की भड़ास निकाल संतुष्टि प्राप्त कर लें। तो यह कहानी है उस परी की जो अपने जीवन-काल में अपने उस प्रियतम से अपने लिये भव्य-भवन प्राप्त न कर सकी थी जो इस देश का महान्‌ शासक कहा जाता था।
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