मध्यकालीन सभी लेखकों में चाहे वे भारतीय रहे हों अथवा यूरोपियन, सभी में यह प्रतिस्पर्द्धा रही है कि वे सिद्ध करें कि ताजमहल को शाहजहाँ ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की स्मृति में बनवाया था। यही लीक अधिकांश आधुनिक लेखक भी अपनाए हुए हैं। जब उनके ध्यान में यह बात लाई जाती है कि शाहजहाँ ने पैलेस (महल) खरीदा था तो वह पीसऑफ लैंड (भूमि का टुकड़ा) लिखते हैं। जब उन्हें बाध्य कर दिया जाता है कि बादशाहनामा में मंजिल (महल) शब्द लिखा है तो वे कहते हैं मंजिल का अर्थ होता है 'ठिकाना' अर्थात् वह स्थान जहाँ पहुँचना इच्छित होता है। उदाहरण के लिए यदि आप कलकत्ता जा रहे हैं तो कलकत्ता आपकी 'मंजिल' है। विद्वानों ! अब देखना यह है कि बादशाहनामा में दो स्थानों पर आया 'मंजिल' शब्द किस सन्दर्भ में हैं पर वे मानने को तात्पर नहीं। कुतर्क तो आखिर कुतर्क ही है ? कुछ आधुनिक लेखक तो इससे भी आगे बढ़ गए हैं। वे बादशाहनामा का अक्षरशः अनुवाद करते हैं, 'दि साइड सेलेकेट आन विच, टिल देन स्टुड दि मैनसन (मंजिल) ऑफ राजा मानसिंह' (चुने गये स्थल पर उस समय तक राजा मानसिंह का भवन खड़ा था) यह स्वीकार करने के पश्चात् भी कि 'भवन' खड़ा था, लेखक आगे ताजमहल की नींव रखना, भव्य भवन बनाना आदि प्रारम्भ कर देता है। कया भवन के ऊपर नींव रखी गई थी ? यदि राजा मानसिंह का महल खरीदा गया था तो पहले उसे गिराया भी होगा तभी ताजमहल शाहजहाँ द्वारा बनाया जाना सम्भव था। क्या मध्यकाल से आज तक किसी भी लेखक ने एक भी ईंट निकलाने का अथवा एक भीदीवार अथवा छत के गिराने का कोई भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से वर्णन किया है? कम से कम आज के समय का प्रत्येक लेखक यह तो स्वीकार करने ही लगा है कि भूमि नहीं अपितु भवन खरीदा गया था। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उस भवन को गिराना क्या आवश्यक था ? आइये देखें- राजा मानसिंह का भवन जो उस समय उनके पौत्र राजा जयसिंह के स्वामित्व में था का वर्णन बादशाहनामा में इन शब्दों में किया है। 'विशाल, मनोरम, रसयुक्त वाटिका से घिरा हुआ, महान् भवन, आकाश चुम्बी। उस महान भवन, जिस पर गुम्बज है तथा आकार में इतना ऊँचां' इतने भव्य भवन को गिराने की क्या आवश्यक थी ? शाहजहाँ को तो रानी के शव को दफनाने के लिए एक विशाल, वाटिका से घिरे हुए, गुम्बजयुक्त, आकाशचुम्बी भवन की आवश्यकता थी और वह उसे बिना श्रम के अनायास प्राप्त करने में सफल हो गया था, अस्तु, भवन गिराने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। इसीलिये आगे स्पष्ट लिखा है 'उस धार्मिक महिला को संसार की दृष्टि से छिपा दिया, उस आकाश चुम्बी बड़ी समाधि के अन्दर; उस महान भवन में जिस पर गुम्बट है।' इन शब्दों में स्पष्ट लिखा है बुरहानपुर से रानी का शव लाने के पश्चात्महल में दफनाया गया था, न कि दफनाने के पश्चात् कब्र के ऊपर भवन बनाया गया था। इतिहासकार ८ से २२ वर्ष का समय ताजमहल के बनने का बताते हैं। यदि शव को शाहजहाँ द्वारा बनाये गये ताजमहल में दफनाया गया था तो क्या २२ वर्ष तक शव बाहर पड़ा रहा ? यदि ऐसा ही था तो शव को बुरहानपुर से लाने की क्या आवश्यकता थी ? उसे २२ वर्ष पश्चात् ही लाया जाता, क्या शाहजहाँ अथवा उसके मन्त्री इतने भी दूरदर्शी नहीं थे ? पिछले कुछ वर्षों से खोज जारी थी। विद्वानों को विश्वास था कि यदि शाहजहाँ ने राजा जयसिंह से भवन खरीदा था तथा उसके बदले में भूमि का एक टुकड़ा दिया था तो उस भूमि के स्वामित्व के हस्तान्तरण का कोई न कोई आदेश भी अवश्य दिया गया होगा और यह आदेश-पत्र राजा जयसिंह की वंश परम्परा अर्थात् आधुनिक जयपुर नरेशों के पास ही होना चाहिए। ऐसा अनुमान किया जाता था कि उक्त आदेश-पत्र की भाषा कुछ ऐसी अपमानजनक है कि राजा जयसिंह के वंशधर उसे प्रकाशित नहीं करना चाहते हैं। अन्ततः उक्त आदेश-पत्र ढूँढ़ ही निकाला गया तथा इससे भ्रम के सारे बादल छंट जायेंगे, ऐसी आशा की जा सकती है। मूल फारसी के लेख का शब्दशः अनुवाद(हिन्दी में प्रथम बार) अन्यत्र दिया जा रहा है। यहाँ पर उसका सार इस प्रकार है- 'वह हवेली, जिनका विवरण पीछे दिया गया है, अपने साथ की परिसम्पत्तियों सहित.... राजा जयसिंह को दिया जाता है, उस हवेली के बदले जो पहले राजा मानसिंह की थी, जिसे उसने (जयसिंह ने) स्वयं की सहमति से महारानी मुमताज महल के मकबरे के लिए दान कर दिया।' आज की तारीख में लिखा गया, ७वाँ दिन दाय के मास का इलाही वर्ष ६, तदनुसार २८ जुमादिन आखिर १०४३ हिजरी। दि. २८ दिसम्बर १६३३ ई.। १. राजा भगवान दास की हवेली। २. राजा माधौसिंह की हवेली। ३. मुहल्ला अतगा खान बाजार स्थित रूपसी बैरागी की हवेली। ४. मुहल्ला अतगा खान बाजार स्थित चाँद सिंह सुपुत्र सूरजसिंह की हवेली। इस फरमान के पिछले पृष्ठ पर उपरोक्त सम्पतितयों की सूची के अतिरिक्त प्रधानमन्त्री अफजल खान तथा अन्य कई अधिकारियों यथा मकरामत खान, मीर मोहम्मद, मीर जुमला, हकीम मुहम्मद सादिक खान आदि अनेक दरबारियों की स्वयं की हस्तलिपि में टिप्पणियाँ हैं। कुछ टिप्पणियों के उदाहरण के देखिए-'इसे मंगलवार को पूज्यनीय की सूचना के लिये प्रस्तुत किया जाय'; 'एक उच्च मान प्रतिष्ठा युक्त आज्ञापत्र जारी किया जाय'आदि-आदि। इन टिप्पणी के साथ-साथ टिप्पणी लिखने वाले राज्य अधिकारियों के पद-मर्यादा के भारी-भरकम विशेषण भी लिखे हैं। उदाहरण देखिये, 'जुमलात अल मुल्की अल महामी अल्लामी फाहमी अफजल खन।' एक टिप्पणी 'वाकिया नवीस' समाचार लेखक की भी है कि उसने इसे समाचार पुस्तक में लिख लिया है। एक विशेष टिप्पणी जुमलात अल मुल्की की हस्तलिपि में इस प्रकार है, 'स्वर्गीय शाहजादा खनम की हवेली जो उक्त राजा को दी गई थी, को प्रमाणित किया जाता है।'' अन्त में सत्यापन तथा मुहर एवं मौलिक की सत्य प्रतिलिपि के रूप में प्रमाणित करने वाले 'मुहम्मद की धार्मिक संहिता का चाकर अबुल बरकत' के हस्ताक्षर है। इस पृष्ठ पर दिनांक हैं-रविवार, दाय मास की २८ तारीख, इलाही वर्ष ६, तदनुसार १४ रजब १०४३ हिजरी। उपरोक्त फरमान को ध्यान से पढ़ने पर अनेक तथ्य उभर कर सामने आते हैं - १. राजा जयसिंह से शाहजहाँ ने मुमताज महल को दफनाने के लिये एक भव्य हवेली ली थी। २. इस हवेली (ताजमहल) के बदले में राजा जयसिंह को परसिम्पत्तियों सहित चार हवेलियाँ दी गईं। ३. पहले स्व. शाहजादा खानम की हवेली भी इसी मद में दी गई थी जिसे वापस नहीं लिया गया। उक्त आदेश-पत्रको पढ़ने के बाद, पीस ऑफ लैण्ड (भूखण्ड), फारमरली स्टुड ए मैंशन (पहले वहाँ पर भवन था अथवा मंजिल) को ठिकाना बताने वालों का मुँह तो बन्द हो ही जाना चाहिए। उन्हें अन्ततोगत्वा चाहते अथवा न चाहते हुए यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शाहजहाँ ने राजा जयसिंह से मुमताजमहल को दफनाने के लिए एक भव्य भवन लियाथा, न कि खाली पड़ा भूखण्ड (पीस ऑफ लैण्ड)। यह भवन इतना विशाल एवं भव्य था कि उसके बादले मं राजा जयसिंह को शाहजहाँ ने एक नहीं पाँच हवेलियाँ (स्व. शाहजादा खानम की हवेली सहित) उनकी परिसम्पत्तियों सहित हस्तांतरित कीं। राजा जयसिंह का भवन अति भव्य था। अतः उसे गिराने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता था एवं हवेली को बिना गिराये शाहजहाँ द्वारा ताजमहल को बनाया जाना असम्भव है। हम पहले भाग में एक सूची दे चुके हैं जिसमें यमुनातट पर स्थित उस समय के समस्त भवनो एवं महलों के अधिपतियों के नाम दिये गये हैं। उक्त सूची डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के तत्कालीन प्रबन्धक ने शाहजहाँ के राज्यारोहण के कुछ वर्ष पूर्व बनाई थी। उक्त सूची में भवनों को उत्तर दिशा से प्रारम्भ कर दक्षिण दिशा में समाप्त किया है। इस सूची में अन्तिम दोभवनों का विवरण इस प्रकार है-स्वर्गीय राजा मानसिंह, राजा माधौसिंह। बादशाहनामा में लिखा है कि नगर के दक्षिण में स्थित राजा मानसिंह के महल को मुमताजमहल के शव को दफनाने के लिए चुना गया। डच सूची के अनुसार भी नगर के दक्षिणी सिरे पर स्थित दो महलों में एक राजा मानसिंह का था। इस फरमान से स्पष्ट है कि (दिया गया) राजा माधौसिंह का महल भी शाहजहाँ के स्वामित्व में था ओर वह उसमें रानी के शव को बिना किसी झंझट के दफना सकता था, राजा माधौसिंह के महल को ही क्यों नहीं रानी के शव को दफनाने के लिए चुना गया ? एक कारण तो स्पष्ट है कि राजा माधौसिंह का महल इतना अधिक भव्य नहीं था। राजा मानसिंह के महल के बदले में राजा माधौसिंह के महल सहित पांच महल दिये गये अर्थात् वह महल ताजमहल की भव्यता की तुलना में कम से कम पाँचवा भाग ही था। अधिग्रहण करने पर किसी भी सम्पत्ति का पूरा मूल्य नहीं दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो राजा मानसिंह का भव्य महल पांच नहीं पच्चीस-पचास महलों के बराबर था। एक अन्य बिन्दु, यदि शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण किया था तब तो राजा माधौसिंह को खाली पड़ा महल (परिसम्पत्तियों सहित)ही अधिक उपयुक्त था, क्योंकि उस कम भव्य भवन को गिरा कर नये ताजमहल को बनाना अधिक सरल कार्य होता। यहाँ पर कुछ प्रबुद्ध पाठक शंका करेंगे कि अभी तक तो आप बादशाहनाम के सन्दर्भ से लगातार यह कहते रहे कि शाहजहाँ ने ताजमहल के बदले में राजा जयसिंह को भूमि का एक टुकड़ा दिया था, परन्तु अब आप एकाएक कह उठे कि शाहजहाँ ने मानसिंह के महल के बदले एक-दो नहीं चार महल दिए थे। यह केसे सम्भव हुआ। यदि बादशाहनामा के अनुसार भूमि का टुकड़ा दिया था तो महल कहाँ से आ गये और यदि महल दिये थे तो भूमि के टुकड़े का क्या हुआ ? पाठकों की शंका अति उचित है। प्रथम दृष्टया में यह सन्देह होना स्वाभाविक ही है कि बादशाहनामा तथा इस फरमान में इतना अधिक अन्तर क्यों है ? अपतिु ध्यान से समीक्षा करने से सत्य उजाकर हो ही जाता है कि अपने-अपने स्थान पर दोनों ही वर्णन सत्य हैं। आइये, समीक्षा करें। अर्जुमन्द बानों का देहान्त बुरहानपुर में हुआ था। उस समय उसे वहीं पर ताप्ती नदी के तट पर दफना दिया गया था। बाद में किसी समय शव को आगरा लाने अथवा राजा मानसिंह के महल को इसी बहाने हथियाने की योजना बनी। बादशाहनामा में लिखा गया कि रानीके शव को दफनाने के लिए नगर के दक्षिण में स्थित राजा मानसिंह के महल को चुना गया। यद्यपि बादशाहनामा के अनुसार उक्त महल के तत्कालीन स्वामी राजा जयसिंह उसे बिना मोल लिये देने को तेयार हो जाते, परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत यह है कि राजा जयसिंह उक्त महल को किसी भी मूल्य पर देने को तत्पर नहीं थे। उन्हें बहुत समझाया, डराया-धमकाया गया, पर वे टस से मस नहीं हुए। उन पर दबाव बढ़ाने के लिए रानी के शव को बरहानपुर से सचमुच (या मात्र दिखावे के लिए) लाकर (ताज) महल के प्रांगण में रख दिया गया, परन्तु जयसिंह नहीं माने। अन्ततः उन्हें भूमि का एक टुकड़ा देने का लालच दिया गया। राजा जयसिंह रूठ कर आमेर चले गये। भवन पर बलपूर्वक कब्जा कर लिया गा तािा शव को महल में दफना दिया गया। यह घटना सन् १६३२ ई. की है और इसी समय बादशाहनामा में उक्त बातें लिखी गईं। सबसे पहले इस भूमि के टुकड़े के भ्रम को दूर करें। यह तो स्पष्ट है कि शाहजहाँ की ओर से राजा जयसिंह को एक भूमि के टुकड़े को देने का प्रस्ताव कियागया था पर उसे राजा द्वारा अस्वीकार कर दिये जाने के कारण, दिया नहीं गया था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि उक्त भूमि के टुकड़े का न तोमाप ही उपलब्ध है ओर न ही यह ज्ञात है कि यह भूाण्ड किस स्थान पर अवस्थि था। दूसरा प्रमाण यह है कि यदि वास्तव में कोई भूखण्ड दिया गया होता तो उसे स्वामित्व हस्तान्तरण के लिए कोई न कोई फरमान अवश्य जारी किया गया होता। अन्तिम प्रमाण यह है कि जिस प्रकार इस फरमान में पूर्व में यिे गये स्व. शाहजादा खानम के महल की पुष्टि की गई है, उसी प्रकार यदि कोई भूखण्ड दियागया होता तो उसे भी कम से कम इस फरमान में संदर्भित तो किया ही गया होता कि राजा जयसिंह को पूर्व में अमुक स्थान पर अमुक माप का भूखण्ड दिया गया था और उसे पुष्ट किया जाता है। अतः स्पष्ट है कि भूखण्ड नहीं दिया गया था। तत्पश्चात् शाहजहाँ द्वारा राजा जयसिंह को तीन फरमान संगमरमर भजने के लिए २० सितम्बर सन् १६३२, ३ फरवरी सन् १६३३ तथा अन्तिम १ जुलाई सन् १६३७ को भेजे गये। पूर्व में इन सभी फरमानों की समीक्षा की जा चुकी है। राजा जयसिंह ने संगमरमर भेजने तथा गाड़ियों की व्यवव्था करने में कोई सहयोग नहीं दिया। राजा के असहयोग के कारण संगमरमर की उपलब्धता में व्यवधान उत्पन्न हो रहा था तथा संगमरमर की कमी के कारण कुरान लेखन नहीं हो पा रहा था। अन्ततःविचार-विमर्श कर राजा जयसिंह को स्वर्गीय शहजादा खानम वाला महल दिया गया, परन्तु राजा जयसिंह ने संगमरमर भेजने की व्यव्सथा फिर भी नहीं की जैसा कि २० सतम्बर सन् १६३२ ई. तथा ३ फरवरी सन् १६३३ ई. के फरमानों से स्पष्ट है। इन परिस्थितियों में यही उचित समझा गया कि राजा जयसिंह के एक अति भव्य भवन के बदले में उसे चार महल दिये जाए। तदनुसार इस परिप्रेक्ष्य मं फरमान तैयार किया गया। किसी ने याद दिलाया कि राजा जयसिंह को पूर्व में शाहजादा खानम का महल दिया जा चुका है। उसे क्या वापस ले लिया जाय ? कहीं राजा इसे अपना अपमान न मान बैठे तथा बात बनने के स्थान पर बिगड़ न जाए, इस भय से स्वर्गीय खानम वाला महल वापस न लिया गया और तदनुसार जुमलात अल मुल्की ने फरमान के पिछले पृष्ठ पर टिप्पणी दी, 'स्वर्गीय शहजादा खानम की हवेली जो उक्त राजा को दी गई थी, को प्रमाणित किया जाता है।' उक्त सन्देह का आधार यह है कि मूल फरमान में शाहजादा खाननम की हवेली के बारे में कोई जिक्र नहीं है। यह सब बाद में सोच-विचार कर निर्णय किया गया था, क्योंकि मूल फरमान की तिथि २८ जुमादिल आखिर १०४३ हि. है जबकि पिछले पृष्ठ पर की गई टिप्पणी की तिथि रविवार १४ रजब१०४३ हिजरी है जो लगभग १६ दिन बाद की है। यही कारण है कि जुमलात अल मुल्की मदार अल फाहमी ने टिप्पणी की कि, 'इसे पुनः प्रस्तुत किया जाए।' तत्पश्चात् हकमी मुहम्मद सादिक खान ने लिखा, 'इसको मंगलवार को पुज्यनीय की सूचना के यिले प्रस्तुत किया जाय।' स्पष्ट है कि यह परविर्तन शाहजहाँ को मान्य हो गया था। परिसम्पत्तियों के विवरण में पहली हवेली राजा भगवानदास की लिखी है। राजा भगवानदास राजा जयसिंह के परबाबा का नाम था। फरमान से यह स्पष्ट नहीं है कि यह हवेली राजा जयसिंह के बाबा वाली ही थी अथवा किसी अन्य राजा भगवानदास के नाम की थी। एक प्रश्न और अनुत्तरित रह जाता है। उक्त चारों हवेलियां शासन की सम्पत्ति बताई गई हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि चार भिन्न-भिन्न राजाओं तथा सरदारों की हवेलियाँ राजकीय सम्पत्तियां किस रूप में हो गईं ? |