१५ कुछ अन्य विसंगतियाँ

पिछले अध्याय में भ्रमण के अन्तर्गत हम धूमिल कुरान को निहार रहे थे। उर्दू, फारसी, अरबी आदि भाषाओं की लिपि के अधिकांश अक्षर गोलाकार हैं। अब यदि हम ध्यान से कुरान की ओर देखें तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि अधिसंखय गोल अक्षरों को भी लम्बा बना कर लिखा गया है, अर्थात्‌ पहले एक सीधी रेखा खींची गई है तथा जब वह समाप्त-प्राय होने को है तो उसे घुमाकर सही अक्षर के रूप में लिख दिया गया है। यदि आस-पास के बेलबूटों, घंटियों, नागों तथा कुरान का निर्माता एक ही व्यक्ति होता तो उसका अभिकल्प भी एक-सा होता। स्पष्ट है पहले बने हुए भवन की वास्तविक झाँकी को ध्यान में न रखते हुए अमानत खान खीराजी ने कहीं दूर बैठ कर कुरान लिखी थी। बाद में उन पत्थरों को चिपका दिया गया। आप तर्क दे सकते हैं कि शीराजी ने कुरान लिखी थी तथा बेलबूटों का कारीगर कोई अन्य शिल्पी रहा होगा। यह सत्य है कि शिल्पी तो दो-चार नहीं हजारों हो सकते हैं, परन्तु उनको मनमानी करने की आज्ञा तो नहीं दी जा सकती है। पूरा भवन यदि शाहजहाँ ने बनवाया होता तो सारी संरचना उसकी देखरेख मेंहुई होती अथवा उसके द्वारा नियुक्त प्रभारी अधिकारी की देखरेख में जो शाहजहाँ की इच्छा तथा अभिकल्प के आधार पर निर्माण-कार्य कराता, परन्तु जब अकेली कुरान ही लिखनी थी तो पूरे भवन का अभिकल्प उपलब्ध होने का प्रश्न ही नहीं। एक पत्थर पर कुरान लिखकर शंहशाह को दिखा दी गई होगी। कुरान चूँकि स्वयं में सुन्दर ढंग से लिखी गई थी, अतः शाहजहाँ को भा गई होगी। जब लिखित कुरान को पत्थर सहित भवन पर लगाया जाएगा तब यह कैसी फबेगी इसकी कल्पना कौन कर सकता था ? तथ किसमें इतना साहस था कि जिस शिलालेख की शहंशाह ने प्रशंसा कर दी उसकी कोई आलोचना कर सके। पूरी लिखी जाने पर समस्त पत्थरों को लगा दियागया होगा। उस समय शाहजहाँ आगरा में उपस्थित भी न रहा होगा, क्योंकि राजधानी दिल्ली जा चुकी थी। नई लिखवट होने के कारण कुरान के अक्षर दिख रहे होंगे तथा आसपास की अनुकृतियों पर भारी पड़ रहे होंगे, अतः सभी ने प्रशंसा की होगी। फिर कसी को इन विसंगतियों की चिन्ता क्यों होने लगी ? उनका अभिप्राय तो कब्जा बरकरार रखने हेतु कुरान लिखकर अपने नाम का ठप्पा लगाना मात्र था।

एक उदाहरण और है। मुमताज एवं शाहजहाँकी चारों कब्रों पर भी उनकेनाम तथा प्रशंसा आदि लिखी हैं, परन्तु उनकी लिपि फारसी होते हुए भी लिखावट गोल है। कारण स्पष्ट है। इस लेखन का निर्माता औरंगजे़ब था।

अब हम बीच की नहर के साथ-साथ उसकी बाईं ओर चलते हुए मध्य भाग तक आते हैं। यहाँ पर मध्य में एक चबूतरा है। उसके दाएं-बायें भी नहर चलती हैं, परन्तु उनमें फव्वारें नहीं हं। जहाँ पर यह नहरें समाप्त होती हैं उसके सामने ही दोनों ओर पूर्वी एवं पश्चिमी दीवारों से लगे दो मंजिले दो भवन बने हैं, जिनका माप ६० द्द्र २० फीट है। यह दोनों भवन विशिष्ट हिन्दू शैली में बने हैं तथा इनके ऊपर अष्ट-भुजी शिखर एवं कलश हैं। इन दोनों का नाम कुछ दिन पूर्व तक 'नक्कार खाना' था तथा इसी नाम की पटि्‌टका भी लगी थी। जब यह प्रश्न जोर-शोर से उछाला गया कि नक्कारखाना का अर्थ उस स्थल से हुआ जहाँ पर वान यन्त्र रखे जाते हों अथवा उन्हें बजाया जाता हो। पहले तो मुस्लिम धर्म में ही संगीत निषिद्ध है, उस पर भी धर्म कोई भी हो मकबरे अथवा कब्रिस्तान तो आमोद-प्रमोद के स्थल नहीं है, फिर साथ ही लग हुई मस्जिद है। उसके समीप भी संगीत वह तो सर्वथा वर्जित है। इस आलोचना कासमुचित उत्तर न दे पाने के कारण उपरोक्त 'नक्कारखाना' नाम की पटि्‌टकाएँ उतार ली गई तथा बाएं ओर वाले भवन को 'संग्राहलय' घोषित कर दिया गया। आइए, इसके अन्दर का दृश्य देखते हैं।

अन्दर जाने पर एक बड़ा कमरा मिलता हे तथा उसके सामने, दाहिने तथा बायें तीन अन्य छोटे कमरे हैं जिनका प्रवेश मुखय बड़े कमरे में होकर ही है। इन कमरों में शाहजहाँ कालीन एवं बाद की बहुमूल्य सामग्रियाँ हैं जिनका इस लेख की विषयवस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः हम लोग सबसे पहले मुखय बड़े कमरे से दाहिनी ओर के बड़े कमरे में जायेंगे।

अन्दर घुसते ही बाईं ओर सबसे पहले ताजमहल का चित्र है जो यमुना नदी की ओर से बनाया गया है। इस चित्र में यमुना से मिली दीवार के पूव्र एवं पश्चिमी छोरों के समीप दो द्वार स्पष्ट दिखई देते हैं। यह वही द्वार हैं जिनमें से पूर्व द्वार की चौखट की लकड़ी को तेज़ चाकू से छील कर अमरीका भेजा गया था तथा जहाँ से इसकी आयु आज (सन्‌ १७) से लगभग ६३८ वर्ष पूर्व की कूती गई थी। इस 'शरारत' के उजागर होने के पश्चात्‌ भारत सरकार ने अत्यन्त वीरता के साथ उक्त दोनों द्वारों की लकड़ी के चौखट-दरवाजे हटा दिये तथा उन्हें ईंट पत्थरगारे से बन्द करा दिया, यद्यपि वे अभी भी दिखाई देते हैं। सम्भवतः इस लेख के प्रकाशित होने के पश्चात्‌ उपरोक्त चित्र तथा कई अन्य ऐसे ही चित्र भी संग्राहलय से हटा दिये जायेंगे जिससे भविष्य में कोई सिद्ध ही नहीं कर सके कि यहाँ पर कोई द्वार था।

इसी कमरे में मेज क्र. ५ पर शाहजहाँ के तीन फरमानों की फोटो प्रतियाँ रखी हैं। यह फरमान बादशाह शाहजहाँ ने आमेर (जयपुर) के राजा जयसिंह को भेजे थे तथा जिनमें राजा से संगमरमर भेजने की व्यवस्था करने का आग्रह किया गया था।

इनमें पहला फरमान्‌ सितम्बर १६३२ का है जिसके अनुसार मुलुक शाह को संगमरमर की व्यवस्था करने के लिये भेजा जा रहा है जो सरकारी खजाने से भुगतान करेगा, आदि....

दूसरा फरमान फरवरी १६३३ का है। इसकी भाषा से ज्ञात होता है कि इससे पूर्व भी एक फरमान भेजा गया था (परन्तु उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई) यह ध्यान में रखते हुए कि अधिसंखया में संगमरमर लाने के लिये गाड़ियों  की आवश्यकता है, अब सय्यद इलाहादाद (अल्लाहूद) को भेजा जा रहा है, आदि...............

तीसरा फारमान्‌ ७ सफर १०४७ हि. तजदनुसार १ जुलाई सन्‌ १६३७ ई. का है जिसके अनुसार आमेर तथा राजनगर मेंनिर्माण कार्य चल रहा है तथा राजा उस क्षेत्र के पत्थर कारीगरों को एकत्र कर इस कार्य पर लगा रहा है। फलतः मकराना पर कार्यरत कारीगरों की कमी हो गई है। राजा को आदेश दियागया कि इन कारीगरों को आमेर एवं राजनगर में एकत्र न कर मकराना भेजे। राजा को आदेश का पालन करने के लिये सचेत भी किया गया।

इन फरमानों से क्या तात्पर्य निकलता है तथा क्यों रानी के मरते ही शाहजहाँ को संगमरमर की आवश्यकता पड़ गई और क्यों राजा जयसिंह आदेश मानने के स्थान पर अडंगां लगाता रहा आदि विषयों पर पूर्व में ही विस्तार से विचार कर चुके हैं।

इसी संग्राहालय में 'ताज म्युजियम' नाम की एक पुस्तिका मिलती हे जिसका मूल्य रु. ३.२५ पै. है। यह डॉ. जेड. ए. देसाई एवं एच. के. कौल द्वारा लिखित तथा सन्‌ १९८२ में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक द्वारा प्रकाशित की गई थी। यह पुस्तक अंग्रेजी में है।

इस पुस्तक के पृष्ठ तीन पर इस कहावत को किंवदन्ती ही माना है कि बेगम ने मरते समय शाहजहाँ से अपने प्यार की यादगार सुरक्षित रखने के लिये एक भव्य भवन बनाने की इच्छा प्रकट की थी। दरबारी अभिलेखों के आधार पर यह बताया गया है कि अपनी अन्तिम भेंट में रानी ने लगाताररोते हुए अपने बच्चों का ध्यान रखने तथा अपने पिता आदि पर दया रखने की भीख ही मांगी थी।

इसी पुस्तक के पृष्ठ चार-पांच पर लिखा है, 'दफनाने के लिये चुना गया अत्यन्त सुन्दर एवं ऊँचा स्थल जो नगर के दक्षिण में स्थित था तथा उस पर राजा मानसिंह का महल (मंज़िल) अवस्थित था जो उस समय उनके पौत्र राजा जयसिंह के स्वामित्व में था। यद्यपि राजा इसको उपहार स्वरूप दे देना अत्यन्त सम्मानजनक मानते, फिर भी सम्राट ने धार्मिक नियमों को ध्यान में रखते हुए (इसके) बदले में सरकारी भूमि से एक ऊँचा भवन दिया।'

उपरोक्त कथन जो स्पष्टतः बादशाहनामा का ही अनुवाद है से सुसिद्ध है कि राजा मानसिंह का भव्य भवन लिया गया था, न कि खाली भूमिखण्ड। उपरोक्त भवन को गिरा कर नया भवन (राजमहल) बनाया गया, ऐसा इस पुस्तक में भी नहीं लिखा है। थोड़ा-सा परिवर्तन लेखकों ने अवश्य किया हैं उन्होंने लिखा है कि बदले में एक भवन दिया गया था। उनके झूठा का पर्दाफाश उनकी भाषा से ही हो जाता है, 'ग्रान्टेड टु हिम इन एक्सेन्ज ए लोफ्टी रेसीडेन्स फ्राम द क्राउन लैण्ड।' पाठक भली-भांति समझ सकते हैं कि सरकारी भूमि से एक भूखण्ड तो दिया जा सकता है, परन्तु भवन तो नहीं।एक भवन तो सरकारी भवनों से ही दिया जा सकता है। बादशहनामा के पृष्ठ ४०३ की पंक्ति ११ का अनुवाद इस प्रकार है, 'उस भवन के बदले सरकारी भूमि का एक टुकड़ा उन्हें दिया गया।'
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