प्रत्येक धार्मिक स्थल के बनाने, उपयोग करने एवं अनुरक्षण के लिये कुछ नियम-उपनियम होते हैं और उनका पालन करना अति आवश्यक होता है, विशेष कर सत्रहवीं शताब्दी में तो उनके उल्लंघन कीकल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अतः यदि आज हमें ताजमहल में कुछ ऐसी वस्तुएँ दिखाई देती हैं, जिनका कब्र, कब्रिस्तान अथवा मकबरे से कोई सम्बन्ध ही न हो तो मन में शंका का उदय होता है। पुनः यदि कोई ऐसी वस्तु भी दिखाई दे जाए जो मकबरे आदि की भावना के ही विपरीत हो तो उक्त शंका अधिक दृढ़ होकर प्रमाण का रूप धारण कर लेती है। ऐसी ही कुछ विसंगतियों के बारे में हम इस परिच्छेद में चर्चा करेंगे जो ताजमहल परिसर में अनेक संखया में बिखरी पड़ी हैं, परन्तु जिन पर कभी गवेषणा नहीं की गई है। जब हम इस प्रकार की विसंगतियों की चर्चा प्रारम करते हैं तो हमारे मार्ग में कुछ वे तर्क, वितर्क एवं कुतर्क आड़े आते हैं, जो वे लोग करते हैं जिन्हें इस महान भवन की सारी प्रक्रिया में शाहजहाँ के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता है और अन्ततः वे इस कुतर्क की शरण लेते हैं कि अकबर के समान ही शाहजहाँ भी हिन्दू-मुस्लिम गंगा-यमुनी संस्कृति का पोषक था, अतः उसने जान-बूझकर इस भवन को हिन्दू चिन्हों से अलंकृत किया था। महान अकबर के बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता हूँ, परन्तु शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी शासक था, जिसके कुकृत्य बादशाहनामाएवं इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं। उन कृत्यों को यहाँ पर उद्धृत कर वातावरण को विषाक्त नहीं करना चाहता हूँ पर इतना तो सरल बुद्धि से समझा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति या तो कब्र-मस्जिद बनवायेगा अथवा महल-मन्दिर। दोनों का मिलाजुला अजूबा क्यों खड़ा करेगा ? यदि वह ऐसा बनायेगा भी तो स्पष्ट घोषित भी करेगा। शाहजहाँ ने तो मात्र इतना घोषित किया है कि मैंने रानी का शव इस भव्श्य भवन में दफनाया है तथा उसे धार्मिक रूप देने और अपने नाम का ठप्पा लगाने हेतु कुरान लिखा दी थी। बस बन गया ताजमहल। प्रत्येक धर्म के अनुसार मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् मृत आत्मा की शान्ति एवं मुक्ति के लिये प्रयास किये जाते है। अतः कब्रिस्तान का निर्माण शान्त वातावरण में किया जाता है। उनका विकास आमोदालय, मनोरंजनगृह एवं पर्यटन-स्थल के रूप में नहीं हो सकता। इसी मौलिक दृष्टिकोण को लेकर अब हम एक बार ताजमहल का भ्रमवण करेंगे तथा वहाँ पर स्थित प्रत्येक वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करेंगे। ताजमहल के संगमरमर निर्मित मुखय भवन के चारों ओर विशल प्राँगण हैं। इसके उत्तर की ओर यमुना नदी प्रवहमान है। पूर्व की ओर जमातखाना अथवा मेहमानखाना (जवाब) नामकविशाल भवन है। पश्चिम की ओर इसके समान ही बना जो भवन है उसे मस्ज़िद कहते हैं। इसके दक्षिण की ओर विशाल बाग है तथा एक द्वार है। इस द्वार के बाहर आने पर एक विशाल प्राँगण है, जिसे जिलोखाना कहते हैं। इस जिलोखाना के चारों ओर चार विशाल द्वार हैं। दक्षिण की ओर का द्वार काफी ऊँचाई पर है और उस तक सीढ़ियों द्वारा जा कर ताजगंज नामक मुहल्ले में जाया जा सकता है। इस द्वार का सही नाम 'श्री दरवाजा है जो अब गिड़ कर सीढ़ी दरवाजा कहलाने लगा है। हमारी यात्रा इसी 'श्री' द्वार से प्रारम्भ होगी। 'श्री' दरवाजा नाम स्वयं में ही यह स्पष्ट करता है कि उसका शाहजहाँ अथवा उसके कृतित्व से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। इस द्वार के ऊपर (ताजगंज से आते समय) एक खाली स्थान है। यह खाली स्थन या ताख प्रत्येक प्राचीन मन्दिर या भवन के प्रवेश द्वार के ऊपर मिलेगा। इस खाली स्थान या ताख में प्रथम पूज्यनीय गणेश जी की प्रतिमा की स्थापना करने की परिपाटी अनादि काल से आज तक चली आ रही है। श्री गणेश जी को मस्तक झुकाकर नमन करने की परम्परा युगों-युगों से रही है, तत्पश्चात् ही कोई हिन्दू भवन अथवा मन्दिर में प्रवेश करता है। आज यह स्थान खाली है, क्यों खाली है अथवाएक स्थान खाली क्यों बनायागया, इसका सन्तोषजनक उत्तर किसी के पास नहीं है। फिर भी आज की तिथि में यह स्थान खाली है। इस स्थान पर गणेश प्रतिमा कभी रही होगी, यह विश्वास करने का प्रबल कारण होते हुए भी इसे प्रमाण रूप में स्वीकार कर लेना भी युक्ति-संगत नहीं होगा। श्रीद्वार को पार कर अब हम पुनः जिलोखाना नामक विशाल प्रांगण में आ जाते हैं। इस प्रांगण की लम्बाई एक हजार फीट तथा चौड़ाई चार सौ फीट है। इस प्रांगण के चारों ओर अनेक कमरे बने हुए हैं। यदि हम नगर (लालकिला) की ओर से जिलोखाना में प्रवेश करते हैं तो पहले हमको अनेक दुकानें मिलेंगी जो उपरोक्त पूर्व निर्मित कमरों में ही स्थित हैं। इसके आगे जो कमरे हैं उनकी लम्बाई-चौड़ाई १२ द्द्र १२ फीट १२ द्द्र १५ फीट है। कुछ बड़े कमरे ३५ द्द्र १५ फीट माप के भी हैं। कुछ बरामदे भी हैं। इन कमरों-बरामदों आदि का प्रयोग यात्रियों, सन्तरियों को ठहराने या अस्तबलों आदि के रूप में होता रहा होगा। इस प्रांगण के पूर्व में जो द्वार है उसके पास दक्षिणी दीवार के पास सरहन्दी बेगम की कब्र है। यह शाहजहाँ की पहली बेगम थी। इसका कोई ब्यौरा प्राप्त नहीं है कि यह कब तथा कहाँ पर मरी थींतथा इनको यहाँ कब दफनायागया था। इसी प्रकार पश्चिम द्वार के आगे दक्षिणी दीवार के पास सती-उन-निसा खानम की कब्र है जो शाहजहाँ के हरम की प्रभारी थी तथा कहते हैं जो बुरहानपुर से अर्जुमन्द बानों के शव के साथ आई थीं। इस प्रकार 'श्री' दरवाजा के दोनों ओर समान दूरी पर दो कब्रें स्थित हैं। इस प्रकार यह विशाल प्रांगण भी कब्रिस्तान ही हुआ, परन्तु इसका नाम है जिलोखाना अर्थात् आमादालय; वह स्थान जहाँ पर नागरिक गायन, वादन, नृत्य आदि से मनोरंजन करते करात हों। यदि आप 'श्री' दरवाजा को ध्यानपूर्वक देखें तो उसके दोनां ओर दो खाली स्थान बने हैं जिन पर बैठ कर वादक लोग शहनाई आदि बजाते थे। ओंकारेश्वर तथा अन्य अनेक मन्दिरों में इस प्रकार के बने हुए स्थान आज भी प्राप्य हैं। आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि पूव्र स्थित भवन के जिन कमरों में यात्री ठहरते थे, तथा आमोद-प्रमोद करते थे, उसी के आधार पर पुराने नाम का अनुवाद स्वरूप आज का नाम 'जिलोखाना' चल रहा है। इस प्रांगण को अधिकार में लेने के लिए कब्रें बनाई गई थीं। अन्यथा कब्रिस्तान में कमरों-बरामदों आदि क्या उपयोग है ? अब हम जिलोखाना के मध्य में खड़ेहोकर यदि निरीक्षण करें तो अपने चारों ओर लाल पत्थर से बने अनेक भवन एवं दीवारें पायेंगे। इन पर अनेक छतियाँ विशिष्ट हिन्दू शैली की मिलेंगीं। इन भवनों के नीवं के ऊपर का अलंकरण, बरामदों की बनावट, खम्भें, छतें, बुर्जियाँ यहाँ तक की छतों की बनावट, उसकी पच्चीकारी आदि में राजस्थानी कला बोलती-सी प्रतीत होती है। अब इस प्राँगण के उत्तर स्थित मुखय द्वार पर आयं अर्थात् उस द्वार पर जहाँ से खड़े होकर ताजमहल स्पष्ट दिखाई देता है। इस द्वार का माप १४० द्द्र ११० फीट है। इसके चारों ओर चार अष्ट पहलू स्तमभ हैं, जिनके ऊपर छतरियाँ स्थित हैं। मुखय द्वार ४२ फीट चौड़ा है जिसके ऊपर एक लाल कली है। ध्यान से देखने पर कली में त्रिशूल स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। यहीं पर दाहिनी तथा बाईं ओर संगमरमर की दो पटि्टकाओंपर एक सूचना (बाईं ओर अंग्रेजी में तथा दाहिनी और हिन्दीं में) लिखी मिलेगी। सूचना इस प्रकार है : 'ताजमहल को सम्राट् शाहजहाँ (१६२७-१६४८) ने अपनी बेगम मुमताज महल के मकबरे के रूप में १६३१ और १६४३ के बीच बनवाया। मुमताज महल का वास्तविक नाम अर्जुमन्द था और वे आसफखाँ की पुत्री थीं।उनका जन्म १५९२ में और शाहजहाँ से विवाह १६१२ मेंहुआ था। उनकी मृत्यु अपने चौदहवें शिशु के जन्म के पश्चात् १६३१ में हुई। सम्राट् भी अपनी मृत्यु के बाद यहीं सम्राज्ञी के पास दफनाये गये।' इस सूचना में यद्यपि कुछ विशेष नहीं है तथा स्पष्ट है कि यह सूचना शाहजहाँ की मृत्यु उपरान्त ही नहीं अपितु स्पष्ट रूप से अंग्रेजों द्वारा लगाई गई होगी जो कि इसके समान ही बाईं ओर की अंग्रेजी सूचना से स्पष्ट है। फिर भी यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि हम ध्यानपूर्वक इस संगमरमर की पटि्टका के नीचे लाल पत्थर के ऊपर बने अलंकरण को देखें तो गणेश जी की अनेक भव्य मूर्तियाँ स्पष्ट दिखाई देंगी जैसे ऊपर लिखी सूचना का परिहास उड़ा रही हों। दो गणपति एक साथ, दोनों ओर शुण्ड, दन्त, नीचे का भाग आदि। मस्तक पर मुकुट, ऊपर केले का बन्दनवार उसके आगे अलंकरण पुनः दो गणपति........। इसप्रकार यह गणपति प्रतिमाएं श्रृंखलाबद्ध रूप में इस भवन के चारों ओर, अन्दर-बाहर सहस्त्रों की संखया में विद्यमान हैं। समय एवं ऋतुओं की ओर अनेक प्रतिमाएं झरण के कारण घिसकर समाप्त हो गई हैं और भारत सरकार ने कृपापूर्वक उन्हीं के समान नई भव्श्य प्रतिमाएँ नवीन पत्थरों पर उत्कीर्ण करा कर उन स्थानों पर लगवा दी हैं, अर्थात्भारत सरकार को इन गणपति प्रतिमाओं का ज्ञान तो है फिर भी अपना धर्म निरपेक्ष स्वरूप बनाये रखने की चेष्टा हेतु उपरिलिखित पटि्टका हटाने को तत्पर नहीं है। सरकार के तत्पर होने का प्रश्न भी नहीं है। आज कोई सरकार हो या सरकारी अधिकारी, न्याय के लिये स्वतः निर्णय कोई नहीं लेता है जब तक कि कोई मांग न हो, आन्दोलन अथवा उग्र आन्दोलन न हो। अब हम भीतर चलते हैं भीतरी फाटक पार कर एक ऊँचे चबूतरे पर खड़े हैंं सामने मध्य में फव्वारों की पंक्ति है। उनके दोनों ओर मोरपंखी के वृक्षों की पंक्ति, कुछ छोटे कुछ पूरे। यहाँ से स्फटिक श्वेत विशाल भवन अपनी शुभ्र आभा को बिखेरता हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। इसी को ताजमहल कहते हैं। इसके विशाल फाटक के ऊपर अधखिला कमल पुष्प, पुष्प के दोनों ओर की बनी बेलें जो अति लुभावनी हैं। उसके ऊपर कुरान लिखी है। उसके गुम्बज की चित्रकारी भी स्पष्ट दिखाई देती है। यह सभी मिलकर अद्भुत दृश्य बनाते हैं। इस समस्त वर्णन को सुनकर पाठकों के अंतस को कुछ छू-सा अवश्य गया होगा। कमल पुष्प, बेलें, घंटियों की माला, द्विसर्प आदि-आदि, सभी कुछ हिन्दू संस्कृति के अंग, सभी प्राचीन भवनों एवंमन्दिरों की शोभा; परन्तु बीच में कुरान भी है। यह सब क्या है ? आपकी समस्या का समाधान भी यहीं उपस्थित हैं। जहाँ आप खड़े हैं पीछे मुड़ कर देखिये। जो कुछ आपने सामने देखा उसी की प्रतिकृति आपके पीछे भी उत्कीर्ण है। अन्तर केवल इतना है कि आपके सामने वाला भवन शुभ्र प्रस्तर का है तो पीछे वाला लाल पत्थर का, अस्तु पीछे की ओर उत्कीर्ण आकृतियाँ सुस्पष्ट नहीं हैं। ध्यान से देखने पर आप पायेंगे कि कुरान के अक्षर काफी बड़े हैं-दो ढाई फीट तक, परन्तु उपरोक्त अन्य आकृतियाँ अपेक्षाकृत लघु हैं। अब पुनः सामने ध्यान से देखिये। कुरान को छोड़ सभी आकृतियाँ सुस्पष्ट दिखाई दे रही हैं, यहाँ तक कि छोटे-छोटे फूल पत्ती घंटियाँ आदि, परन्तु कुरान ! उसका तो आभास मात्र ही प्रतीत हो रहा है। अत्यन्त धूमिल-कई स्थानों पर तो पुती-सी प्रतीत होती है, कोई अक्षर स्पष्ट दृष्टिगोर नहीं होता है। इन दोनों प्रकार की कृतियों में विरोधाभास वह भी इतना अधिक क्यों ? जबकि कुरान सहित अन्य सभी आकृतियाँ शाहजहाँ द्वारा निर्मित कही जाती हैं। क्या शाहजहाँ ने मात्र कुरान ही लिखाई थी ? इससे क्या यह प्रमाणित नहीं हो जाता कि अन्य कृतियाँ शाहजहाँद्वारा निर्मित नहीं है। |