१२ मिर्जाराजा जयसिंह

'मिर्जा राजा' की उपाधि से विभूषित आमेर के राजा जयसिंह ताजमहल के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। जिस भवन में आज शाहजहाँ एवं अर्जुमन्द बानू बेगम की कब्रें हैं वह भवन सन्‌ १६३१ से पूर्व इन्हीं के स्वामित्व था। इनका पूर्ण परिचय जानेन से पूर्व यह अति आवश्यक है कि इनके पूर्वजों के अतीत में झांके।
राजा भारमल सन्‌ १५४८-१५७४

यह आमेर के राजापृथ्वीराज की राठौड़ी पत्नी से उत्पन्न चौथे पुत्र थे। पृथ्वीराज 'हरिभक्त' की मृत्यु के उपरान्त उनका बड़ा पुत्र पूरनमल राजा बना, परन्तु उसकी मृत्यु के समय उसका पुत्र सूजा अल्पायु था। अतः भीम (पृथ्वीराज पुत्र) को राजा बनाया गया। भीमसिंह की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका पुत्र रतन सिंह राजा बना, पर उसके सौतेले भाई आसकरण ने उसे मार दिया था। आसकरण के इस कृत्य से क्षुब्ध सरदारों ने उसे गद्‌दी से उतार कर भारमल को नरेश बनाया था। यह सारी घटनाएँ सन्‌ १५२७ से सन्‌ १५४८ तक घटी थीं और १ जून १५४८ को गद्‌दी पर बैठते समय राजा भारमल की आयु ५० वर्ष थी।

इस देश ने विभीषण, जयचन्द तथा मी जाफरों को भी कभी क्षमा नहीं किया है। इनका दोष यह था कि इन्होंने विदेशियों को अपने देश पर आक्रमण करने में सहायता की थी, परन्तु दुःख है कि भारमल को इस श्रेणी में कभी नहीं रखा गया। इस नीच राजा ने तो न केवल अकबर का राज्य इस देश में सुदृढ़ करने में अपने पूरे परविार को लगा दिया अपितु मुगलों को ही नहीं अपने अन्य शत्रुओं को भी इसने अपनी कन्याएं दीं। इस राज्य लोलुप वृद्ध ने एक ओर अकबर को राजस्थान के राजाओं पर आक्रमण करने को उकसाया,वहीं दूसरी ओर अकबर का कोपभाजन होने का भय दिखा कर राजपूत राजाओं को पूर्ण समर्पण करने तथा अपनी कन्याएं मुगल हरम में भेजने को प्रेरित किया था। भारतीय इतिहास का यही वह कलंकित पितामह है, जिसका पौत्र मानसिंह जून १५७३ ई. में तथा जिसका पुत्र भगवन्तदास सितम्बर १५७३ ई. में प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकारने को बाध्य करने पहुँचे थे।

राजा भगवन्तदास (१५७४-१५८१)
६ फरवरी सन्‌ १५६२ ई. को भारमल ने अपनी पुत्री बाई हरखा का विवाह अकबर के साथ किया था। १० फरवरी सन्‌ १५६२ को विदा के समय भारमल के पुत्र भगवन्तदास तथा पौत्र मानसिंह अकबर के साथ आगरा आये। तबसे मृत्यु-पर्यन्त यह दोनों अकबर की सेना में रहे। अकबर के शासन-काल में लड़े गये प्रत्येक युद्ध में इन दोनों ने भाग लिया एवं उसका शासन सुदृढ़ किया। यही नहीं, एक बार इन्होंने अकबर की जान भी बचाई थी।

राजा मानसिंह (१५८१-१६१४)
मानसिंह का जन्म पौष कृ. १३ सं. १६०७ वि (सन्‌ १५५० ई.) में हुआ था। इस पकार यह मात्र १२ वर्ष क आयु में अकबर के साथ आया था, अस्तु! इसका मुगलशासन के साथ कार्यकलाप तीन भागों में विभक्त है :
१. १५६२ से १५७४ तकभंवर (पौत्र) के रूप में।
२. १५७५ से १५८१ तक कुंवर (पुत्र) के रूप में।
३. १५८१ से १६१४ तक राजा के रूप में।

यह एक अत्यन्त पराक्रमी पुरुष थे। काबुल, कंधार से लेकर बंगाल, उड़ीसा तक प्रत्येक अभ्यिान का इसने नेतृत्व किया था। काबुल, बिहार तथा बंगाल आदि प्रदेशें के यह सूबेदार रहे। अपने बाबा तथा पिता के समान ही यह भी मुगल दरबार के सबसे ऊँचे मनसबदार रहे। इनके पिता तथा इन्होंने अकूत सम्पत्ति अर्जित की थी।

सन्‌ १६१४ में राजा मानसिंह की मृत्यु के उपरान्त सन्‌ १६२१ तक आमेर की गद्‌दी पर कई उथल-पुथल हुए थे। अन्ततः दिसम्बर १६२१ में इनका पौत्र जयसिंह आमेर का शासक नियुक्त किया गया। कतिपय इतिहासकारों ने इन्हें राजा मानसिंह का प्रपौत्र भी बताया है। इनका जन्म सन्‌ १६०१ में हुआ था, अतः पीड़ादायक तथा उथल-पुथल पूर्ण रहा था। इनका चाचा भाऊ सिंह अपने पुत्र बद्रीसिंह के लिये गद्‌दी सुरक्षित रखना चाहता था, एवं इनकी हत्या करना चाहता था, अतः इनकी माता भाग कर दौसा पहुँचीं तथा वहां से एक दूत उन्होंने जहाँगीर की सेवा में भेजा था।

मिर्जाराजा जयसिंह अतीव मेधावी, पराक्रमी, रणकुशल एवं विलक्षण कूटनीतिज्ञ थे। इनके पिता को राजगद्‌दी न देकर जहाँगीने गढ़ाह (आधुनिक जबलपुर) की जागीर दी थी, जहाँ वह अपने परिवार को पीछे छोड़ कर अकेले ही गये थे, और वहीं उनका अल्पकाल में ही देहान्त हो गया था। उस समय इनकी आयु मात्र पाँच वर्ष ही थी। इनकी माता ने इनका लालन-पालन किया था। सन्‌ १६२१ ई. में आमेर की गद्‌दी खाली होने के कारण जहाँगीर ने इनको राजा बनायाथा। पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देने लगते हैं, तदनुसार किशोरावस्था से ही इन्होंने कौशल दिखाना प्रारम्भ कर दिया था। अपने जीवन का सबसे पहला कार्य इनको शाहजादा खुर्रम (बाद में बादशाह शाहजहाँ) के विद्रोह को दमन करने का मिला था। सम्राज्ञी नूरजहाँ ने इनको आदेश दिया था कि यदि शाहजादा खुर्रम आमेर की ओर आवे तो उसका पूर्ण दमन किया जाय। नूरजहाँ के २१.१.१६२३ के तुगरा के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है। अतः राजा जयसिंह १२ मार्च १६२३ को दिल्ली जहाँगीर एवं नूरजहाँ से मिलने के लिये आये थे। खुर्रम भी असतर्क नहीं था। उसने इनकी अनुपस्थिति में २१ अप्रैल सन्‌ १६२३ को आमेर को लूटा था। यद्यपि राजा जयसिंह राजाज्ञा का पालन कर रहे थे। उनकी शाहजादा खुर्रम से व्यक्तिगत जान-पहचान तक नहीं थी कोई शत्रुता भी नहीं थी,फिर भी शाहजादा खुर्रम द्वारा अपनी प्रजा को निर्देाष पीड़ित किया जाना उन्हें कैसे सहन होसकता था ? पाठक भूले नहीं होंगे कि पिछले ६० वर्षों से अधिक से आमेर की प्रजा सुख-शान्ति से समृद्धि का जीवनयापन कर रही थीं उसके शासक दूसरे प्रदेशों से लूट का माल तो लाते थे पर लुटना किसे कहते हैं, यह उन्हें ज्ञात नहीं था। अतः घायल सिंह के समान इन्होंने शहजादे का पीछा किया और अन्ततः उसे धूल चटा कर ही दम लिया। सन्‌ १६२४ ई. दिनांक १६ अक्टूबर को माँडू, फिर बुरहानपुर पीछा करते हुए हाजीपुर में जयसिंह एवं खुर्रम का निर्णायक युद्ध हुआ था।

स्पष्ट है कि बादशाह बनने का सपना चूर-चूर हो जाने एवं आपमानजनक पराजय को शाहजहाँ भूल नहीं सका था। यद्यपि १४ जनवरी १६२८ को अजमेर में आनासागर पर दोनों की भेंट हुई थी और ऐसा लगता है कि दोनों के बीच सुलह-सफाई भी हुई थी, परन्तु वह भेंट स्पष्टतया राजनीतिक ही थी। मन का मैल दूर नहीं हुआ था। गाँठ जो पड़ चुकी थी।

अब उन परिस्थितियों पर विचार किया जाए जिनमें इनसे राजमहल छीना गया था। पाठकों की जिज्ञासा के लिये यह बता दूं कि यह वही जयसिंह थे जिन्होंने शाहजहाँ के प्रिय पुत्र एवंयुवराज दारा शिकोह की गुप्त सूचनाएं औरंगजेब को भिजवाई थीं तथा युद्ध में औरंगजेब का साथ दिया था। कहा यह जाता है कि कुमार दारा हिन्दू दर्शन को मानने वाला था एवं औरंगजेब कट्‌टार विरोधी था। ऐसी दशा में क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता है कि शाहजहाँ तथा जयसिंह, दोनों एक दूसरे को अत्यन्त गृणा करते थे और एक दूसरे कोपीड़ा पहुँचाने का कोई अवसर नहीं खाते थे। ऊपर से राजनीतिक सीमाओं में बंधे होने के कारण एक दूसरे का सीधा विरोध भी नहीं करते थे।

राजा जयसिंह इतने शक्तिशाली तथा कूटनीतिज्ञ थे कि राजा मानसिंह के समान ही पूरा मुगल साम्राज्य इनके कन्धे पर टिका था। यह इसी बात से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि महान्‌ शिवाजी जिनके सम्मुख अनेक मुगल सेनापति घुटने टेक गये उन्हीं शिवाजी को मिर्जा राजा जयसिंह ने अपनी वीरता एवं कूटनीतिज्ञता के बलबूते पर मुगल राज-दरबार में आने को विवश कर दिया था। ऐसे महान्‌ सेनापति पर बिना किसी विशेष कापरण हाथ डालना सरल नहीं था। इसके लिये शाहजहाँ को किसी विशेष सुअवसर की तलाश थी जो भाग्य से उसके राज्यारोहण के तीन वर्ष बाद ही सुलभ हो गया।

शाहजहाँ की हजारोंरानियों में से एक रानी अर्जुमन्द बानों बेगम उर्फ मुमताज-उज-ज़मानी का देहान्त मंगलवाल २० जून १६३१ को बुरहानपुर में हो गया था। उसके शव को अगले गुरूवार को ताप्ती के दूसरे तट पर जैऩाबाद में दफना दिया गया था। जैसा कि कहा जाता है कि वह बादशाह की अतिप्रिय रानी थी और उसे मरते समय अपने लिये यादगार बनवाने का बादशह से वचन लिया था। यदि यह सच होता तो यादगार जैनाबाद (बरहानपुर) में भी बनवाई जा सकती थी। यदि यादगार आगरा में बनवानी थी तो शव को बुरहानपुर में न दफना कर सीधा आगरा भेज दिया जाता जहाँ पर उसे कहीं पर भी दफनाया जा सकता थ, या कम से कम उस भूखण्ड पर तो दफनाया ही जा सकता था, जो कथित रूप से इस भवन को प्रापत करने के बदले में राजा जयसिंह को दिया गया था। पाठकों की सूचना के लिये यहाँ पर यह स्पष्ट कर दूं कि मुस्लिम धर्म में दफन किये हुए शव को खोदकर निकालना तो दूर कब्र को खोदना या क्षति पहुँचाना तक सखत मना है।

मुल्ला अब्दुल हमीद लाहोरी कृत बादशाहनामा खण्ड एक, पृष्ठ ४०३ की पंक्ति २९-३० के अनुसार 'उसके बीच वह भवन जो मानसिंह के महल के नाम से प्रसिद्ध था, इस समय राजा जयसिंह के स्वामित्व में था, जोपौत्र थे, को रानी को दफनाने के लिये चुना गया जिसका स्थान अब स्वर्ग में था। 'मूल लेख' पेश अज ऐन मंजिल ए राजाह मानसिंह बूद वदारी वक्त बा राजाह जयसिंह नबीर ए ताल्लुक दस्त-बारा-ए मदफन ए आन बहिस्त मुवत्तन बार गुजीदन्द' अर्थात्‌ राजा मानसिंह के महल को रानी को दफनाने के लिये चुना गया था। प्रश्न उठता है क्यों  ? क्या कारण था इस भवन को चुनने का ? मुल्ला ने इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया है, पर हम देते हैं।

हर व्यक्ति जानता है कि शव को खुले आसमान के नीचे ही सदैव दफन किया जाता है। फिर इस रानी के शव में क्या विशेषता थी, जो इसके दफनाने के लिये एक भवन की आवश्यकता थी ? यदि भवन की आवश्यता थी तो यमुना तट पर भवनों की कमी नहीं थी। डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मुखय अधिकारी फ्राँसिस्को पालसेर्ट द्वारा सन्‌ १६२६ में बनाई गई सूची में अनेक भवनों के नाम हैं, जिनमें से एक भवन रानी के पिता आसफखान का भी था। रानी जिस भवन में खेली, बड़ी हुई एवं शाहजादे से विवाही गई, उस भवन से तो उसका भावनात्मक लगाव कुछ अधिक ही होना चाहिए था। रानी को यदि नगर से दूर ही दफनाना था तो भी राजा मानसिक के भवन के आगे राजा माधौसिंहके भवन के आगे विपुल स्थान उपलब्ध था, मात्र एक भवन ही बीच में था। इसके अतिरिक्त इसी सूची के अनुसार नदी की दूसरी ओर भी पर्याप्त स्थान उपलब्ध था, विशेषकर आधुनकि ताजमहल के सामने का वह घाट जहाँ पर किंवदन्ती के अनुसार शाहजहाँ काले पत्थर का एक मकबरा अपने लिये बनवाना चाहता था। स्पष्ट है कि स्थानों की कमी नहीं थी तथा मुगल शासक के लिये हो भी नहीं सकती थी। वास्तव में उस समय की दशा के अनुसार तो यह भवन स्मारक बनाने के उपयुक्त भी नहीं था, क्योंकि ऊँचे-ऊँचे मिट्‌टी के टीलों के कारण यह भवन अदृश्य सरीखा था और संसार इस भवन को भली-भांति देख सके इसके लिये शाहजहाँ चिन्तित था तथा पीटर मुण्डी के अनुसार उसने इन टीलों को समतल कराया था जो आज भी अपने छोटे रूप में विद्यमान हैं। फिर क्यों नहीं शाहजहाँ ने खुला स्थान दफनाने के लिये चुना था ? अब पाठकों को समझ में आ गया होगा कि यह सारी कार्यवाही मात्र राजा जयसिंह से बदला लेने के लिये तथा उन्हें नीचा दिखाने के लिये की गई थी।

आगे देखिये क्या हुआ। बादशाहनामा के उसी पृष्ठ की अगली तीन पंक्तियां इस प्रकार 'यद्यपि राजा जयसिंह अपनी पैत्रक वंश परम्परानुसार प्राप्तसम्पत्ति को अतयन्त मूल्यवान मानते थे, वह बादशाह को इसे उपहार में दे सकते थे, (फिर भी) अत्यन्त सतर्कता बरतते हुए जो ऐसे दुखद विछोह एवं धार्मिक पवित्रता के विषयों में आवश्यक है, उस महान्‌ भवन के बदले में सरकारी भूमि का एक टुकड़ा उन्हें दिया गया।' मूल पाठ इस प्रकार है, 'अगरचेह राज जयसिंह हुसूले ऐन दौलतरा फोजे अजीम दानिश्त अनमाब अजरूए एहतिहात केह दर जमीये शेवन खुसूसन उमूरे दीनी एह नागुजिर अस्त दर आबाज आन आली मंजिल ए अज खलीसा एक शरीफाह बदू मरहत फरमूदन्द'।

यही वह तीन पंक्तियाँ हैं जिसका अर्थ निकालना सरल नहीं है तथा जो भी इन पंक्तियों का अर्थ समझ लेगा उसके सम्मुख सारी घटना प्रकट हो कर नृत्य करने लगेगी। सबसे पहले लिखा है कि राजा जयसिंह अपनी पैत्रक सम्पत्ति को अत्यन्त मूल्यवान्‌ मानते थे। यह तो आज भी देखने से स्पष्ट है कि वह सम्पत्ति कितनी मूल्यवान्‌ थी तथा आज भी है। साथ में यह भी लिखा है कि उपहार में दे सकते थे। कितना आश्चर्यजनक है यह कथन ? क्या टाटा या बिड़ला आज भी ऐसी सम्पत्ति उपहार में दे सकते हैं, चाहे उनके कितने भी हित सरकार के हाथों में हैं ? फिर भी शाहजहाँ ने सतर्कता बरतते हुए भूमि का एकटुकड़ा बदले में अता फरमाया। क्या खूब रही ! पाठक भली भांति अनमान लगा सकते हैं कि ताजमहल के बदले क्या कोई टुकड़ा प्रयाप्त हो सकता है ? भूमि का टुकड़ा तो क्या कोई जागीर भी पर्याप्त हो सकती है ? कितना विशाल भूखण्ड तो ताजमहल परिसर में ही विद्यमान है। इससे भी बड़ा टुकड़ा क्या दिया गया था ? पाठकगण भ्रमि न हों। शाहजहाँ ने क्या बनवाया तथा क्या तुड़वाया था, यह तो आगे बताऊँगा पर आपकी शंका के निवारण के लिये इतना लिखना ही पर्याप्त होगा कि जैसा ताजमहल आज आप देख रहे हैं लगभग वैसा ही उस समय था।

इसके अतिरिक्त कौन-सा भूखण्ड, वह कहां पर स्थित था तथा कितना बड़ा था इसका कोई ब्यौरा नहीं दिया गया। अस्तु! कोई भूखण्ड नहीं दिया गया, यह मानना ही श्रेयस्कर है अथवा यदि कोई भूखण्ड दिया भी गया था तो वह इतना नगण्य था कि उसका वर्णन करना ही सम्भव नहीं अथवा उसे राजा जयसिंह ने लिया ही नहीं होगा। स्पष्ट है जो व्यक्ति अपनी स्वामिभक्ति प्रदर्शित करने हेतु ताजमहल सरीखा भवन उपहार में दे सकता है वह क्या एक भूमि का टुकड़ा अस्वीकार भी नहीं कर सकता था। 

दो शब्द और भी महत्वपूर्ण हैं और वे हैं, (१) ऐसे दुखद विछोह,(२) धार्मिक पवित्रता के विषयों में । पाठक यदि ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि यह दोनों वाक्यांश सन्दर्भ रहित हैं तथा इनका भूमि के उपहार में लेने अथवा न लेने से कोई स्पष्ट वा सीधा सम्बन्ध नहीं है। फिर यह क्यों लिखे गये, बताता हूँ।

ऊपर के लेख से स्पष्ट है कि शाहजहाँ जयसिंह को नीचा दिखाना चाहता था पर एकाएक उस पर हाथ भी नहीं डाल सकता था, अतः वह अवसर की खोज में था। रानी की मृत्यु ने उसे यह अवसर दे दिया। राज-दरबारों में कुचक्र एवं षड्‌यन्त्र कितने पनपते थे, यह किसी से छिपा नहीं है। अस्तु, योजना बनाई गई। स्पष्ट है कि ताजमहल भी शाहजहाँ की नजरों में खटक रहा था। अतः जयसिंह को सूचित किया गया कि तुम्हारा भवन रानी के शव के लिये चुना गया है। शाहजहाँ के चाटुकारों ने कहा 'राजा ! इंकार नहीं करना, वरना बादशाह का दिल टूट जायेगा। ऐसे 'दुखद विछोह' के समय हमको अपने मालिक की हर कीमत पर जन बचानी है।' दूसरे ने कहा, 'अमां ऐसे नेक परस्त बादशाह पर एक अदना-सा मकान क्या दुनिया की नियामत कुर्बान की जा सकती है।' तीसरे ने कहा, 'यह तो धार्मिक पवित्रता का विषय है, मिर्जा तुम भाग्यशाली हो जो तुम्हारा मकान बहिस्तवासीरानी के शव के दफन करने से पाक जो जायेगा'
यह तो ज्ञात नहीं कि मिर्जाराजा जयसिंह ने यह प्रस्ताव स्वीकार किया था अथवा नहीं, पर उसे बरबस स्वीकार ही करना पड़ा। दुखद विछोह तथा धार्मिक पवित्रता का वास्ता जो दिया गया था। पाठकगण जानते ही होंगे उस युग में जिस राजा के पास उसकी पत्रुी के लिये प्रस्ताव भेजा जाता था उससे यही कहा जाता था कि तुम महान्‌ भाग्यशाली हो जो बादशाह ने तुम्हें इस काबिल समझा। लगभग इसी प्रकार की भाषा कुटनियाँ राजकुमारियां कहती हैं।

बादशाहनामा में लिख दिया गया, पहले राजा जयसिंह की प्रशसंसा करते हुए कि वह इतनी मूल्यवान तथा पैतृक सम्पत्ति उपहार में देने को तत्पर थे, फिर बादशाह (की इज्जत रखते हुए) को महान्‌ सिद्ध करते हुए यह भी लिखा गया बादशाह ने इस भवन को मुफ्त में नहीं लिया, अपितु बदले में भूखण्ड दिया था। यदि ऐसा नही किया जाता तो प्रजा एवं राजपूत समझते कि ताजमहल राजा मानसिंह से बलात्‌ छीन लिया गया था। 'सतर्कता बरतते हुए' शब्दों का यही तात्पर्य है कि यह भवन छीना गया न माना जाए।

पाठकगण पूछेंगे कि इस सबका क्या प्रमाण है। प्रमाण है, परन्तु खेद है कि उपलब्ध नहीं है। यह तो सभी जानते हैं किजब ताजमहल अधिग्रहीत किया गया एवं उसके बदले एक भूमि का टुकड़ा दिया गया था तो कोई राजाज्ञा निकाली गई होगी। वह राजाज्ञा आज भी जयपुर (आमेर) राजपरिवार के पोथीखाना में उपलब्ध है। कहते हैं कि उक्त राजाज्ञा की भाषा इतनी पीड़ादायक एवं अपमानजक है कि जयपुर नरेश (भूतपूर्व) उसे किसी भी मूल्य पर दिखाने को तेयार नहीं हैं। उसका छिपाना ही प्रबल प्रमाण है।१

एक अन्य प्रमाण भी है। जैसा कि बताया जा चुका है राजा महासिंह की गढ़ाह में असामयिक मृत्यु हो जाने पर उनकी विधवा रानी दमयन्ती देवी पाँच वर्ष के जयसिंह की जान बचाने हेतु दौसा चली गई थीं।

दौसा से रानी ने एक दूत जहाँगीर की सेवा में भेजा था जो उस समय मांडू में था। नूरजहाँ तथा आसफखाँ की सिफारिश पर बादशाह जहाँगीर ने बालक जयसिंह को १५०० का मन्सब प्रदान किया था। इसी उपलक्ष्य में जयसिंह रणथम्भौर में जहाँगीर के दरबार में उपस्थित भी हुआ था।

जयसिंह का चाचा भाऊसिंह जो उसकी जान का ग्राहक हो रहा था का देहावान २७ नवम्बर १६२१ को हुआ तथाउसका पुत्र बद्रीसिंह उससे पूर्व ही काल कवलित हो चुका था। १७ दिसम्बर १६२१ को हरिद्वार में जहाँगीर को यह समाचार मिला तो उस समय आमेर के प्रतिनिधि राय मुकुन्ददास ने कुंवर जयसिंह के लिये महारानी नूरजहाँ से प्रार्थना की थी। अतः रानी की सिफारिश पर जहाँगीर ने राजा की उपाधि तथा २००० जात व १००० सवार का मन्सब प्रदान किया था।

तत्पश्चात्‌ खुर्रम के विद्रोह के दमन के सम्बन्ध में जब राजा जयसिंह १२ मार्च १६२३ को दिल्ली पहुँचे थे तो उनका मन्सब बढ़ाकर ३००० जात व १५०० सवार कर दिया गया था।
१४ जनवरी सन्‌ १६२८ ई. को अजमेर-अनासागर की पाल पर जयसिंह एवं शाहजहाँ की राजनीतिक भेंट हुई थी। शाहजहाँ की आज्ञा से जयसिंह विद्रोहियों का दमन करने से पहले महाबन, तत्पश्चात्‌ खाने जहाँ लोदी से भिड़ने गये। इन वीरताओं के बदले में इनका पद बढ़ा कर ४००० जात तथा ३००० सवार किया गया था।

इसके पश्चात्‌ मार्च १६३८ में कन्धार विजय के पश्चात्‌ १९ अप्रैल १६३१ को जयसिंह को 'मिर्जाराजा' की उपाधि, ५००० जात व सवार तथा चाटसू का परगना दिया गया था। सन्‌ १६२८ से सन्‌ १६३१ ई. के बीच यही एक पदोन्नति उसे मिली थी। सन्‌ १६३१ में ताजमहल के बदले में एक अज्ञात भूमि काटुकड़ा दिया गया था। सन्‌ १६३२ से सन्‌ १६३७ तक के संगमरमर भेजने के फरमानों की जयसिंह द्वारा अवज्ञा भी दोनों के कटुसम्बन्धों की पुष्टि करते हैं, अतः बीच पदोन्नति का प्रश्न ही उपस्थिति नहीं होता।

२८ दिसम्बर सन्‌ १६३३ की उक्त राजाज्ञा अब उपलब्ध है और आगे दी है। इसमें जयसिंह को इस्लाम के शासक का दास कहा गया है।
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