अब हम कब्र वले कक्ष से बाहर आने को प्रस्तुत हैं। एक बार ध्यानपूव्रक एवं उत्सुक दृष्टि से पच्चीकारी एवं अलंकरण का कार्य देख लीजये। अब तक आपके ज्ञान-चक्षु खुल गये होंगे तथा मस्तिष्क से भ्रम का पर्दा हट चुका होगा। अब आपको हर वस्तु अपने बदले हुए स्वरूप में दिखाई देने लगेगी तथा आपके आश्चर्य हो रहा होगा कि पहले यह सब क्यों नहीं दिखाई पड़ा था। कक्ष से बाहर आकर सावधानीपूर्वक नीचे की वास्तविक कब्र देखने के लिये सीढ़ियों से उतरिये, परन्तु सीढ़ियों को गिनना मत भूलियेगा। हैं यह कितनी ? यह तो मात्र २१ सीढ़ियां हैं। यदि आपको याद न हो तो ध्यान दिला दूं, जूते उतारने के पश्चात् इस कक्ष के ऊपर आने तक २४ + ५ त्र २७ सीढ़ियां चढ़े थे और अब आप मात्र २१ सीढ़ियां उतरे हैं। इसका अर्थ यह हुए किअभी आप जूते उतारने वाला स्थल से ८ सीढ़ी (८ द्द्र ८ या ६ फीट) ऊपर हैं। जैसा कि बताया जा चुका है जूता उतारने वाला थल शाहजहाँकालीन भूमितल से ८ फीट ऊँचा है। इस प्रकार नीचे वाली कब्र पृथ्वी के अन्दर न होकर (जैसी कि मान्यता है) पृथ्वी से लगभग १३ फीट की ऊँचाई पर है। यह कक्ष २७ द्द्र २३ फीट लम्बा चौड़ा है, जिसके बीच मुमताज महल की कब्र तथा एक ओर (बाईं) शाहजहाँ की कब्र (कहीं जाती) है। अब दीवारों एवं छत को देखिये। चौंकिये नहीं। पहले ध्यान नहीं दिया होगा, पर अब ध्यान से देखिये। कोई सजावट नहीं कोई पच्चीकारी नहीं; जाली भी नहीं। कहते हैं मरते समय मुमताज ने शाहजहाँ से वचन लिया था कि उसके लिये भव्य मकबरा बनवाये। कहते हैं कि शाहजहाँ उसे अत्यधिक प्रेम करता था। कहते हैं शाहजहाँ ने सम्राज्ञी के लिये अपने प्रेम का प्रतीक, अपने वचनों का पालन करते हुए चालीस लाख रुपये (कुछ विद्वानों के अनुसार दो करोड़ रुपये) व्यय करके भव्य मकबरा बनवाया, परन्तु जिसके लिये यह किया गया उसकी कब्र सूनी पड़ी है, कक्ष सूना है, दीवारें सूनी हैं एवं छत भी सूनी है। क्यों? है कोई उत्तर किसी के पास ? यदि नहीं है तो मेरे पास है। राजा मानसिंह के महल मेंतलघर के रूप में कोई भण्डार गृह रहा होगा, उसी का उपयोग शाहजहाँ ने कब्र बनाने के लिये किया। ऊपर का कक्ष राजा मानसिंह के दैनिक उपयोग के लिये था। अतः भली-भांति अलंकृत किया गया था। शाहजहाँ का अभिप्राय तो मात्र यह भवन अपन ेसे निम्न (स्तर के) सरदार से छीनना मात्र था जिसके लिये रानी को दफनाने का बहाना बनाया गया था। यदि शाहजहाँ मुमताज महल से वास्तव में अत्यधिक प्रेम करता होता अथवा उसने वचन दिया होता अथवा ऊपर के कक्ष का तथा बाहर का अलंकरण उसने स्वयं कराया होता तो इस मुखय कक्ष को बिसूरते हुए नहीं छोड़ देता जहाँ पर विश्व प्रसिद्ध सुन्दर,ी उसकी प्राण प्रिया चिरनिद्रा में सो रही है। न मुमताजमहल उसकी प्रिय रानी थी और न ही उसने कोई वचन ही दिया था, यह हम पहले ही सिद्ध कर आये हैं। नूरजहाँ-जहाँगीर के प्रेम की कहानियाँ हैं; मांडू के राजा बाजबहादुर की भी प्रेम कथाएं विखयात् हैं पर है कोई कथानक इन दोनों के विवाह पूव्र अथवा विवाहेत्तर प्रेम प्रसंगों का ? जो भारत सम्राट् अपनी प्राणप्रिया विश्व सुन्दरी सम्राज्ञी को अपने १८ वर्ष के दाम्पत्य काल में तथा ३-४ वर्ष के राज्यकाल में एक झोंपड़ी भी बना कर न दे सका वह उसके मरने केपश्चात् लाखों-करोड़ों का महल बनवायेगा ? यदि सचमुच उसे महल ही बनवाना था तो अपने हरम में बाकी बची हुई किसी जीवित सुन्दरी के लिये बनवाता जिनके साथ अगले २७ वर्षों तक वह किलोलें करता रहा। बात और स्पष्ट कर दूं कि शाहजहाँ स्वयं रानी के शव को दफनाने के समय भी उपस्थित नहीं था जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि वह उसकी प्राण्प्रिया थी। कहीं पर इस बात का वर्णन नहीं मिलता। शाहजहाँ (पीटर मुण्डी के अनुसार) पहली बार (शव आगरा आने बाद) १ जिल-इल-हिज्जा १०४१ हि. (१ जून सन् १६३२) को आगरा आया था, परन्तु उस समय शव को दफन किया गया था अथवा शाहजहाँ इसी कार्य के लिये आगरा आया था ऐसा किसी इतिहास लेखक ने नहीं लिखा है। बादशाहनामा के अनुसार भी शव अगले वर्ष दफनाया गया जो इस मास के बाद अर्थात् ३० जून के बाद प्रारम्भ हुआ होगा। इस एक मास या अधिक समय तक सम्राट् आगरा रहा था, इसका भी कोई यथोचित् प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका। एक कब्र मुमताज महल की ऊपर के कक्ष में दूसरी कब्र उसी मुमताज महल की नीचे के कक्ष में, एक तीसरी कब्र बावली बुर्ज के पास बगीचे में तथा चौथी एवं अन्तिम पर सर्वाधिक महत्वपूर्ण कब्र बुरहानपुर में, यह क्यातिलिस्म है ? पहली तथा तीसरी कब्र के बारे में तो स्पष्ट स्वीकारोक्ति है कि उनमें मुमताज महल का शव नहीं है, परन्तु शव आदि दूसरी में है तो चौथी में क्या है ओर यदि चौथी में है तो दूसरी में क्या है ? बादशाहनामा लिखने वाले शाहजहाँ के चापलूस तो आगरा में बैठे-बैठे ही कहानियाँ गढ़ रहे हैं कि शव आगरा लाया गया, परन्तु बुरहानपुर का प्रत्येक मुसलमान कह रहा है कि कब्र खोदी ही नहीं गई एवं सम्राज्ञी अभी भी यहीं चिरनिद्रा में विश्राम कर रही है। परन्तु यदि यहाँ पर मन्दिर था कहने वालों का तर्क सुना जाए तो समस्या का हल मिल जाता है। महाकालेश्वर मंदिर उज्जेन तथा अमलेश्वर मन्दिर में दो शिवलिंग इसी प्रकार ऊपर नीचे कक्षों में हैं। अब संगमरमर के भवन से उतर कर इसके पूर्वोत्तर कोने पर आ जाइये। सामने यमुना की ओर दाहिनी ओर लोहे का एक घेरा है, जिसमें नीचे जाने के लिये सीढ़ियां हैं। माननीय पाठकों को ज्ञात ही है कि इन सीढ़ियों से नीचे जाने पर कमरे मिलते हैं। अब अपने एक साथी को संगमरमर के भवन के साथ खड़ा करिये तथा कल्पना करिये कि उसके कन्धे के लगभग ऊँचाई पर नीचे वाली कब्र है। अब सीढ़ियों की ओर देखिये जो १७ फीट नीचेजाकर भूतल को छूती हैं। इससे स्पष्ट है कि नीचे वाली कब्र पृथ्वी से ५ फीट या १३ फीट ही नहीं अपितु लगभग २२ फीट ऊपर है। और यदि यमुना तट की ओर जाकर खड़े होकर देखें तो यह ऊँचाई लगभग ४० फीट होती है। अब पूर्व की ओर स्थित भवन की ओर आइये। यह आकार-प्रकार में मस्ज़िद के समान ही है, केवल फर्श एवं मुल्ला के असासन को छोड़कर। इसका नाम मेहमानखना या जमात खाना है, परन्तु यात्रियों के तर्कों का उत्तर न दे पाने के कारण मुल्ला इसे 'जवाब' कहने लगे हैं, अर्थात् मस्जिद के बाद बना होगा। यदि ऐसा होता तो जो कुछ मस्जिद में है वह सब इसमें होता अर्थात् फर्श-मुल्ला का आसन आदि। जबकि इन चीजों को देखने से स्पष्ट होता है कि यह चीजें ही बाद में बनायी गई थीं। इस भवन में ऊपर नीचे अनेक कमरे हैं जो इसके नाम 'अतिथिशाला' को सार्थक करते हैं। इसके यमुना-तट की ओर स्थित बुर्ज से एक मार्ग यमुना-तट को जाता है जो इस समय दोनों ओर से बन्द है। इस अतिथियों में इसके नाम के अनुरूप अतिथियों को ठहरायाजाता था। ऊपर तथा नीचे के कमरों में विशिष्ट व्यक्तियों को और नीचे के बड़े एवं खुले पर छायादार स्थल में उनकी सेना एवंकर्मचारियों को। यह इस भवन तथा मस्जिद की संरचना से स्पष्ट है। इस भवन के बाहर लाल पत्थर के फर्श पर काले पत्थर का ताजमहल के ऊपर लगे कलेश का प्रतिचित्र बना है जो आकृति एवं माप में ऊपर के कलश के समान है। इसे देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसमें चाँद-तारा कहीं पर नहीं है। चन्द्रमा तो है, परन्तु उसके दोनों श्रृंग समान हैं जो हिन्दुओं में पवित्र एवं पूज्य माना जाता हे जबकि चाँद-तारे का चाँद जो मुसलमानों में प्रचलित है उसका एक श्रृंग ऊँचा तथा दूसरा श्रृंग नीचा होता है। इसमें कई कलशों के साथ चन्द्रमा है। चन्द्रमा के ऊपर इंडुरी (सर पर भार या घड़े को रखने के लिये वस्त्र से बनाया गोल घेरा) के ऊपर कुंभ, उसके ऊपर मुड़े हुए आम्र पत्र तथा सबसे ऊपर नारिकेल स्पष्ट दिखाई देता है। आज भी भारत के किसी कोने में पूजा के लिये जब घट स्थापित किया जाता है तो उसके ऊपर आम के पत्ते रखकर नारियल की स्थापना की जाती है। घट को सम्भालने के लिये उसके नीचे इंडुरी रखने का प्रचलन है अथवा उसके अभाव में मिट्टी के ढेलों या ईंट के छोटे टुकड़ों का करका लगाया जाता है। घट स्थाना एवं घटपूजा एक अत्यन्त पवित्र एवं सर्वमान्य प्रक्रिया है। इस कालेपत्थर के प्रतिकृति की लम्बाई ३० फीट ६ इंच है, जबकि आधुनिक कलश की लम्बाई ३२ फीट ५१/२ इंच है। इससे स्पष्ट है कि यह कलश बदला गया है। अब हम वापस बाग में आते हैं। शाहजहाँ के समय में यह 'रसयुक्त वाटिका' होती थी अर्थात् इसमें मीठे फलों के वृक्षों की भरमार थी। संग्रहालय के कक्ष क्र. ३ में रखे सन् १७९९-१८०० (१२१४ हि.) के पट्टे से स्प्ष्ट है कि शाहआलम द्वितीय के विश्वासपात्र जनरल पैरों (इत्तिजामुद्दौला नसीर-उल-मुल्क जनरल पैरों बहाुर मुजफ्फरजंग) ने अहमद ज़मा को एक वर्ष के लिये (२२ रबी द्वि. शासन काल ४३ से २१ रबी द्वितीय शासन काल ४४ अर्थात् ९-९-१८०० से ३१-८-१८०१ ई. तक) रु. ३२००/- में 'ताजगंज स्थित मकबरे के फलों का' का नीलाम स्वीकार किया था। यह बगीचा लार्ड कर्जन के समय तक था। लास एंजलिस काउन्टी म्यूजियम आफ आर्ट के वरिष्ठ क्यूरेटर डा. प्रताप आदित्य पाल के अनुसार लार्ड कर्जन ने मौलिक बगीचे को बदल कर अंग्रेजी शैली का बगीचा बनवाया था। इस बगीचे के दक्षिणी पूर्वी भाग में गौशाल थी जो आज भी स्थित है। अब यह स्पष्ट करना आवश्यक नहीं है कि गौशला का सम्बन्ध राजा मानसिंह एवं मिर्जाराजा जयसिंह से हो सकता है, अर्थात् सम्राट शाहजहाँ से? शाहजहाँ ने गौशाला की स्थापना की हो, यह कल्पना से परे है। शाहजहाँ से गौशाला नष्ट नही की गई, उसके बहुत से कारण हो सकते हैं। उनमें से एक यह भी हो सकता है कि यह भवन देते समय मिर्जा राजा जयसिंह ने गौशाला की सुरक्षा का वचन लिया हो। जो लेग शाहजहाँ को धर्म-निरपेक्ष सिद्ध करने के लिये यह तर्क रखना चाहते हैं कि शाहजहाँ हिन्दू-धर्म का सम्मान करता था इसीलिये उसने गौशाला की स्थापना की थी। यदि तर्क के लिये यह स्वीकार भी कर लिया जाए कि शाहजहाँ हिन्दू धर्म के प्रति पर्याप्त उदार था तो भी यदि उसे गौशाला की स्थापना ही करनी थी तो सम्पूर्ण आगरा में स्थान की कमी नहीं थी। मकबरे या कब्रिस्तान में गौशाला का तारतम्य उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। राजा मानसिंह के महल के साथ तो गौशाला का होना समीचीन है। इसके साथ ही हमारा ताजमहल परिसर का भ्रमण पूर्ण होता है तथा इसी के साथ ही विसंगतियों का यह पिटारा भी। वास्तव में विसंगतियों का वर्णन तो बहुत अधिक है, यह तो बानगी मात्र है। इतने से ही पाठकों के ध्यान में आ गया होगा कि यदि शाहजहाँ चाहता भी कि राजा जयसिंह के भवन के हिन्दू चिन्ह मिटा दे तो यह उसके लिये सम्भवही नहीं था क्योंकि उस दशाम ें उसे पूरा भवन गिराकर नये सिरे से बनाना पड़ता जो उसका मन्तव्य ही नहीं था। वह तो बादशाहनामा में स्पष्ट स्वीकार करता है कि मैंने रानी का शव दफनाने क लिये राजा जयसिंह का महल लिया था। उसने कभी यह दावा नहीं किया कि उसने यह भवन बनवाया। |