जिस समय हम अपने पूर्व इतिहास की बात करते हैं तो तुरन्त ही हमारा मुंह बन्द कर दिया जाता है कि यह इतिहास सम्मत नहीं है, पुरातत्वविद् इसे सत्य नहीं मानते अथवा यह विज्ञान सम्मत नहीं है। जब भी रामायण या महाभारत काल की प्राचीनता का प्रश्न उठता है, तो इतिहासज्ञ, पुरातत्वविद् एवं वैज्ञानकि असहमति प्रकट करते हुए नाक भौं सिकड़ने लगते हैं और ३,००० वर्ष ई. पू. से पीछे जाना ही नहीं चाहते हैं। इस विषय पर हम लोग कुछ नहीं कह पाते हैं, क्योंकि ज्ञान की ध्वजा उनके हाथ में है और हम लोगअज्ञानियों में आते हैं फिर भी जहाँ तक ताजमहल एवं इसकी ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता प्रश्न है, मैं इस स्थिति में हूं कि एक साथ ही इन तीनों के सम्मुख पाठकों के न्यायालय में उपस्थिति होऊँ और वह भी गर्व, साहस एवं आत्मविश्वास सहित। जहाँ तक इतिहासज्ञों का प्रश्न है, पहले ही अनेक प्रमाणों से ताजमहल की ऐतिहासकिता सिद्ध की जा चुकी है। इस अध्याय में मैं वैज्ञानकि प्रमाणों द्वारा इस भवन को बाबर से भी पूर्ववर्ती सिद्ध कर दूंगा, परन्तु इससे पहले आइये देखें कि पुरातात्विक इस विषय पर क्या कहते हैं? भारतीय पुरातत्व विभाग सन् १८६१ में बना था। उस समय से आज तक इसने देश के अनेक भागों का सर्वेक्षण कराया। मोहनजोदड़ों-हड़प्न्पा से लेकर अनेक स्थलों की खुदाई कराई, परन्तु ताजमहल का सर्वेक्षण आज तक नहीं किया गया इसका मापानुसार कोई मानचित प्रकाशित नहीं किया गया। वास्तुकला के आधार पर इस भवन का ऊपर-नीचे का कोई छाया-चित्र नहीं बनाया गया। आखिर क्यों ? आज तक जनता को यही नहीं बताया गया कि इस भवन के नीचे क्या है तथा ऊपर की मंजिलों में क्या है। कोई कहता है कि इसकी नीवं कुओं पर टिकी है, तो किसी का मत कि लकड़ी के मोटे लट्ठोंपर यह भवन खड़ा है। कई शताब्दियों से यह भवन किसकी शक्ति से यमुना में बाढ़ से सफलता पूर्वक टक्कर ले रहा है, क्या यह अनुसन्धान की बात नहीं है ? यदि दिखाया न भी जाए तो भी क्या यह पता लगाने की बात नहीं है कि नीचे के तल में असली कब्र के अतिरिक्त और क्या है ? पाठकों यह जानकार आश्चर्य होगा कि यह लेखक सुनी हुई बातों के आधार पर नहीं अपतिु अपनी आँखों देखे हुए कुछ स्थलों का वर्णन कर रहा है, जो निम्नलिखित हैं तथा जिनका वर्णन इस विभाग ने आज तक अपनी किसी सर्वेक्षण रिपोर्ट में नहीं किया है। १. ताजमहल के मुखय भवन के पीछे उत्तर की ओर यमुना नदी के छोर के पास दो जीने हैं जो आपस में पूव्र-पश्चिम लगभग ३५० फीट एक दूसरे से दूर हैं। इनको लोहे की जाली लगा कर बन्द कर दिया गया है। इस जीने से नीचे उतर कहर हम ५ फीट ८ इंच चौड़े गलियारे के सिरे पर पहुँचते हैं, जो दूसरे जीने के सिरे तक (३०० फीट) जाता है। इस समय हम असली कब्र (नीचे वाली से भी २० फीट नीचे पहुँच जाते हैं इस गलियारे के उत्तरी किनारे पर (नदी की ओर) विभिन्न मापों के २१ कमरे हैं जिसमें सबसे छोटा ११श् द्द्र २०श् तथा सबसे बड़ा २२श् द्द्र २०श् का है। दोनोंजीनों के दक्षिण की ओर बन्द दरवाजे हैं। इसी प्रकार इस गलियारे के मध्य में भी दक्षिण की ओर एक बन्द द्वार हैं यदि यह द्वार खोला जाय तो आप निश्चित रूप से अली कब्र के नीचे पहुँच सकेंगे तथा यदि दोनों सिरों के दरवाजें खोले जा सकें तो आप संगमरमर के बने भवन के नीचे के कमरों में भली-भांति घूम सकेंगे जिनमें श्री पु. ना. ओक के अनुसार ऊपर के कमरों से हटाया गया सामान रखा गया है जिसमें मूर्तिया भी हो सकती हैं। २. इसी प्रकार के जीने, मस्जिद तथा जमातखाना (जवाब) के बुर्जों में भी हैं, जिनमें से होकर यह लेखक यमुना तट तक जा चुका था। खेद है कि हम लोगों की चतुराई से क्षुब्ध होकर अधिकारियों ने यमुना-तट के दोनों लकड़ी के दरवाजों को निकल दिया और उन्हें ईंटों से बन्द करा दिया हैं अब आप बुर्ज से जीने द्वारा नीचे तो जा सकते हैं, परन्तु आगे का द्वार बन्द है, अतः यमुना तट तक नहीं जा सकते हैं। ३. मस्जिद की दक्षिण दिशा में स्थित अन्तिम सिरे के बुर्ज में सीढ़ियाँ उतर कर कई मंजिल नीचे जाकर एक जलभरी बावली तक पहुँच सकते हैं। ४. इसी प्रकार मुखय - भवन के ऊपर, मस्जिद के ऊपर-नीचे, जमातखाना के ऊपर-नीचे तथा मुखय द्वार(जहाँ पर टिकट देख जाता है) के ऊपर भी जाने का मार्ग तथा कमरे हैं। ५. संगमरमर के मुखय-भवन की परिक्रमा करते समय हर दिशा में मध्य में एक बन्द दरवाजा पाठक आज भी देख सकते हैं तथा इस दरवाजे के आस-पास के अनेक स्थानों पर झरोखे तथा द्वारों का आभास देते हुए निर्माण भी स्पष्ट है, जो नीचे की कब्र के आस-पास बने कमरों के हैं नीचे की कब्र की ओर जाते हुए जीने के आस-पास यदि आप हाथ से थपथपायें तो कई स्थनों पर पोली आवाज आती है। प्रश्न यही है कि इन सभी स्थलों का सर्वेक्षण क्यों नहीं किया गया तथा उसका प्रामाणिक विवरण क्यों प्रकाशित नहीं किया गया ? क्या श्री पु. ना. ओक का यह सन्देह उचित आधार पर नहीं है कि इन कमरों में कुछ ऐसा छिपा है जिसके उजागर होने मात्र से ताजमहल का शाहजहाँ द्वारा निर्मित होने का भ्रम खण्ड-खण्ड हो जायेगा। फिर भी पुरातत्व विभाग की प्रतिष्ठा की एक बात अवश्य स्वीकार करने योग्य है। अभी हाल में इस विभाग ने एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित की है, जिसमें ताजमहल का संक्षिप्त इतिहास हैं उसमें बादशाहनामा के पृष्ठ ४०३ के उद्धरण दिये हैं पहली बार भारत सरकार के किसी विभाग ने इस सत्य को स्वीकार किया हैकि शाहजहाँ ने मिर्जा राजा जयसिंह का गगनचुम्बी गुम्बजयुक्त विशाल भव्श्य भवन को लेकर उसमें मुमताज-उज'जमानी के शव को दफनाया था, परन्तु अभी भी यह विभाग अपनी रूढ़ियों से ग्रस्त है तथा टैवर्नियर के प्रभाव से उबर नहीं सका हैं इतना सब लिखने के पश्चात् भी यह विभाग पाठकों को बताता है कि किस प्रकार शाहजहाँ ने फरमानों द्वारा संगमरमर प्राप्त किया एवं किस प्रकार २२ वर्षों में २०,००० मजदूरों द्वारा इस भवन को बनवाया था। प्रश्न उठता है, जब बना हुआ भवन प्राप्त किया था, फिर क्या बनवाया था ? क्या भवन को तोड़ कर नया बनवाया था ? इन प्रश्नों का उत्तर न विभाग ने दिया है और न देना ही उचित समझा है। पुरातत्व विभाग जहाँ कहीं पर खुदाई कराता है अथवा यदि कोई मूर्ति, शिलालेख सिक्के आदि कहीं पर प्राप्त होते हैं, तो यह विभाग तुरन्त उस वस्तु का काल निर्धारण करता है। काल-निर्धारण करने में यह विभाग अपने को विशेषज्ञ मानता है तथा अपने आगे किसी की नहीं सुनता है। ऐसे विशेषज्ञ विभाग ने आज तक इस भवन का काल-निर्धारण नहीं किया है, क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है ? पिछले १३६ वर्षों में इसकी आवश्यकता क्यों नहीं समझी गई ? सन् १९६८में श्री पु. ना. ओक की पुस्तक 'द ताजमहल इज ए टेम्पिल पैलेस' (ताजमहल मन्दिर भवन है) प्रकाशित हुई थी। उस समय एक धमाका-सा अवश्य हुआ था, परन्तु जनता ने श्री ओक को गम्भीरता से नहीं लिया था तथा उनका कथन हिन्दू प्रतिष्ठा का अतिरंजित प्रयास मात्र माना था। श्री ओक ने इस भवन को शाहजहाँ पूर्व सिद्ध करने का प्रयास किया था। जब यह विभाग आज भी ताजमहल को शाहजहाँ निर्मित मानता है तो क्या यह इसके अधिकारियों का पुनीत कर्त्तव्य नहीं हो जाता है कि अधिकृत तथ्यों के आधार पर वैज्ञानकि पद्धति का अनुसरण करते हुए इस भवन के निर्माण-काल को घोषित करें अथवा इसकी आयु बताए। अन्ततः इस कार्य को करना पड़ा, परन्तु विभाग को नहीं किसी और को। ऊपर बताया जा चुका है कि चमुना-तट पर इस भवन की दीवार में दो द्वार थे जो इस घटन ाके बाद निकाल कर पत्थरों से बन्द कर दिये गये हैं। यद्यपि संग्राहलय में स्थित पुरातन हस्त-रेखा चित्रों में उक्त द्वार आज भी स्पष्ट देखें जा सकते हैं उक्त द्वारों में से पूर्व की ओर वाले द्वार की लकड़ी का कुछ भाग पैने चाकू की सहायता से छीला गया तथा उसी लकड़ी की छिलपट को वैज्ञानिक शोध के लिये संयुक्त राज्य अमरीका केब्रुकलिन विश्वविद्यालय भेज दिया गया। इसी परीक्षण का फल आँखें खोल देने वाला था। |