संग्राहलय से बाहर आकर हम लोग पश्चिमी दीवार के साथ यमुना की ओर चलते हैं। हमारे दाहिनी ओर बगीचा है। जहाँ पर बगीचा समाप्त होता है वहाँ पर ८ द्द्र ४ फीट तथा ५फीट ऊँची चार दीवारों का संगमरमर के पत्थरों का घेरा बना है, जो अब पीला हो रहा है। इसकी दक्षिणी दीवार में लगभग ३.५ फीट का एक दरवाजा कटा है जो ऊपर से गोल है। यह वही स्थान है जहाँ पर रानी का शव बरहानपुर से लाकर १५ जमादुल सानी १०४१ हि (८ जनवरी सन् १६३२ ई) को लगभग ६ मास के लिये रखा गया था अथवा कुछ इतिहासकारों के अनुसार अस्थायी रूप से दफनाया गया था। यह उन कतिपय स्थानों में से एक है जिनकी दूसरी प्रतिकृति दूसरी ओर उपलब्ध नहीं है। यहाँ पर खड़े होकर देखने से स्पष्ट प्रश्न उठता है कि कुछ सौ फीट की दूरी पर बनी हुई मुमताज की आधुनकि कब्र तक ले जाकर शव को भारत सम्राट् शाहजहाँ के लिये दफनाना क्यों सम्भव नहीं हो सका ? क्यों छः मास तक शवयहाँ पर पड़ा हा ? शव तो सदैव ज़मीन में गाड़ जाता है उसके दफनाने के लिये किसी निर्माण की आवश्यकता नहीं होती है जो रानी की मृत्यु के लगभग एक वर्ष बाद तक चलता रहा हो और बाद में ही उसे दफनाया गया हो। इस स्थल को देखने से यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि रानी का शव लाकर यहाँ रखना केवल उस षड्यन्त्र का एक अंग था जिसके अन्तर्गत मनोवैज्ञानकि दवाब डालकर यह भवन राजा जयसिंह से छीना गया था। थोड़ा आगे चलने पर बगीचा समाप्त हो जाता है सामने ४ फीट ऊँचा एक फर्श दिखाई देता है जिसकी लम्बाई १७० फीट तथा चौड़ाई ३६५ फीट है। इसके पूर्व तथा पश्चिमी सिरों पर दो मंजिले दो भवन १९० द्द्र ८० फीट के बने हुए हैं जिनमें पश्चिमी भवन मस्जिद तथा पूर्वी भवन मेहमानखाना (अतिथिगृह) अथवा जवाब कहलाता है। इन दोनों के मध्य में स्थित है विवादास्पद भवन ताजमहल जो ३२८ वर्ग फीट में बना है। ताजमहल के मुखय भवन को छोड़ कर सारा निर्माण लाल पत्थर का है। अब हम मस्जिद की ओर चलते हैं। मस्जिद से ८० फीट पहले एक बुर्ज है जिसे बावली बुर्ज कहते हैं। यह सात मंजिला भवन है जिसकी चार मंजिलें भूमि के अन्दर हैं। ५० फीट व्यास के इस अष्टकोणीय भवन मेंप्रत्येक मंजिल में ज़ीने के अतिरिक्त ९ द्द्र ९ फीट के ६ कमरे हैं। सबसे नीचे बावली है, परन्तु आप उसे देख नहीं सकते हैं क्योंकि इसके सभी भाग बन्द हैं, अतः बाहर से ही देखिये। जहाँ तक दृष्टि जायेगी विशुद्ध राजस्थानी स्थापत्य कला का दिग्दर्शन होगा। मस्ज़िद १९० द्द्र ८० फीट की बैठक पर यह १९० द्द्र ५२ फीट का पश्चिमी दीवार से मिला यह भवन 'मस्जिद' कहलाता है। इसमें तीन ताख हैं जबकि मस्जिद में एक ताख की ही आवश्यकता होती है। यहाँ न तो बजू का स्थान है और न पानी की व्यवस्था, साथ ही मस्जिद की सबसे बड़ी आवश्यकता मुअज्जिम की मीनार भी नहीं है जहाँ से अजान दी जाती है। जिस भाग पर मुखय भवन एवं फाटक पर कुरान लिखी है उस भाग पर इस भवन में खाली पत्थर लगे हैं जिन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि शाहजहाँ से पहले कुरान न लिखे होने की दशा में ताजमहल का मुखय भवन कितना अधिक सुन्दर रहा होगा। फर्श पर लाल पत्थर के स्थान पर चिकने कलात्मक पत्थर लगे हैं जो प्रतयेक नमाजी के लिये निर्धारित स्थान के द्योतक हैं। इस प्रकार इसमें ५३९ व्यक्ति इतने ही पत्थरों पर एक साथ नमाज पढ़ सकते हैं। बीच में ताख के उत्तर वाले भाग में संगमरमर की तीन सीढ़ियांबना कर एक आसन बनाया गया है जिस पर बैठ कर मौलवी प्रवचन कर सकता है। इस आसन से नीचे के पत्थर तथा पीछे दीवार की कलात्मकता छि गई है जिससे सिद्ध होता है कि इस भवन को छीनने के बाद इसे मस्जिद का स्वरूप प्रदान करने के लिये यह आसन बनाया गया होगा। इसके तीनों ताखों के भवनों की छतें सूर्य चक्रम् से सुशोभित हैं तथा सभी द्वारों के ऊपर मध्य में पुष्प हैं। खम्भों एवं अन्य भागों पर अलंकरण हैं तथा ऊपरी छत नाग (सर्प) श्रृंखलाओं से सजी हैं। इसके अतिरिक्त तीनों गुम्बजों पर उल्टा कमल पुष्प एवं कलश है। शाहजहाँ ने जब राजा जयसिंह से इस परिसर को प्राप्त किया तो जो भवन उसे पश्चिम में दिखाई दिया उसे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया जबकि मस्जिद बनाने के कुछ आवश्यक नियम होते हैं यदि वास्तव में शाहजहाँ का विचार रानी के लिये मकबरा और साथ में मस्जिद भी बनाने का होता तो इस पूरे परिसर का परिदृश्य ही कुछ और होता तथा वे गम्भीर गल्तियाँ परिलक्षित नहीं होतीं जो आज स्पष्ट दिखाई देती हें। यह सबसे गम्भीर मामला है और स्पष्ट सिद्ध करता है कि मस्जिद नामक भवन पर बलात् अधिकार किया गया था न कि उसे मुस्लिम धार्मिक नियमों के अनुसार बनायागया था। मस्जिद का निर्माण नमाज पढ़ने के लिये किया जाता है और मान्यता यह है कि वही नमाज कबूल (स्वीकार) होती है जो काबे की ओर रुख करके पढ़ी जाए। इसके लिये मस्जिद बनाते समय सिम्त (दिशा) बाँधी (आँकी) जाती है, जिससे मस्जिद की दीवार का रुख काबे की ओर हो। इस प्रकार जो नमाजी उस ओर रुख (मुँह) करके नमाज पढ़ेंगे तो उनकी नमाज सीधी काबे (मक्का की मुखय मस्जिद) की ओर होने के कारण कुबूल की जाएगी अन्यथा नहीं। इसी नियम को ध्यान में रखकर सारे संसार में सदियों से मस्जिदों का निर्माण किया जाता रहा है। भारतवर्ष अरब से सामान्यतः पूर्व में स्थित है अतः साधारण रूप से हमें यहाँ की मस्जिदों का रुख पश्चिम में दिखाई देता है, परन्तु संसर में अन्य देशों में बनी मस्जिदों के रुख पश्चिम की ओर न होकर पूर्व, दक्षिण व उत्तर अथवा इनका मिलाजुला है। इसी नयिम के अनुसार भारतवर्ष में बनी मस्जिदों का रुख भी ठीक पश्चिम न होकर पश्चिम से कुछ उत्तर अथवा दक्षिण (उस स्थान की भौगोलिक स्थिति के अनुसार) होता है और आगरा की मस्जिदें भी इसका अपवाद नहीं हैं। आगरा स्थित ताजमहल की मस्जिद शुद्ध पश्चिम है। यदि इसे ओर स्पष्ट करें तो इस मस्जिदमें पढ़ी गई नमाज (मुस्लिम विश्वास के अनुसार) काबे की ओर न जाकर उससे ६५० कि. मी. उत्तर के रेगिस्तानों में खो जाती है अथवा यदि काबे से कोई व्यक्ति भारत स्थित नागपुर अपने मित्र को चिल्ला कर संदेश भेजे और वह संदेश धौलपुर या आगरा में उसके शत्रु को प्राप्त हो जाए। आप कुतर्क देने को स्वतन्त्र हैं कि उस युग में इतना अधिक दिशा ज्ञान नहीं था तथा परिष्कृत दिशामापी यन्त्र भी नहीं थे। कृपया पढ़िये बादशाहनामा के पृष्ठ ४०३ की ४० वीं पंक्ति में स्पष्ट लिखा है कि 'ज्यामिति विदों को लगाया गया'। क्या आप यह कहना चाहेंगे कि जिन ज्यामिति विदों को सम्राट् शाहजहाँ ने लगाया होगा वह अनाड़ी और अधकचरे रहे होंगे ? वास्तव में वे साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ एवं अनेक मस्जिदों का अनुभव रखने वाले होंगे, परन्तु उनकी सेवाओं का लाभ तो तब होता जब उन्हें मस्जिद की नींव रखने का कार्य दिया गया होता। यदि ऐसा होता तो मस्जिद ही नहीं ताजमहल का मुखय भवन सहित पूरा परिसर ही १४द्घ-५५ मि. दक्षिण-पश्चिम को घूमा हुआ होता। यमुना का बहाव वहां पर है, उसके अनुसार यह कठिन भी नहीं था। अब अन्तिम प्रश्न कि उस समय के यन्त्र उपकरण इतने परिष्कृत नहीं थे ?देखिये न्यूयार्क के प्रोफेसर मारविन मिल्स जिन्हें यूरोप-अफ्रीका आदि देशों की सैकड़ों मस्जिदों को नापने का सौभाग्य प्राप्त है, क्या कहते हैं ? इनके अनुसार, 'नवीं शताब्दी आने तक वे (मुस्लिम) इतने योग्य हो चुके थे कि मक्का की ओर की दिशा की गणना किसी भी नगर से कर सकते थे जिसमें दो डिग्री से कम की ही गल्ती हो सकती थी............(परन्तु) ताजमहल परिसर की मस्जिद धुर पश्चिम की ओर है जबकि मक्का आगरा से १४द्घ-५५ मि. दक्षिण-पश्चिममें है।' इस विषय में किसी विशेषज्ञ की राज्य जानना भी आवश्यकत नहीं है। अगली बार जब आप ताजमहल देखने जाएं तो अपने साथ एक दिशसूचक यन्त्र (कुतुबनुमा) ले कर जाएं और स्वयं माप कर देख लें कि उक्त ताजमहल स्थित मस्जिद की दिशा क्या है ? आगरा से बाहर के पाठक भी निराश न हों। किसी भी एटलस को देखिये और आप आगरा का अक्षांश २७.१द्घ(उत्तर) पायेंगे, परन्तु मक्का का अक्षांश २१.२५द्घ(उत्तर) है। इससे स्पष्ट है कि मक्का आगरा से ठेठ पश्चिम में न होकर कुछ दक्षिण में है। इनके समानान्तर नगर सऊदी अरब में टेमा नामक स्थान है जिसका अक्षांश २७.३५द्घ (उत्तर) है तथा भारत में नागपुर के पास कोटोल है जिसका अक्षांश २१.२द्घ(उत्तर) है। दूसरे शब्दों में आगरा से टायमा तथा काटोल से मक्का लगभग ठीक पश्चिम में हैं। काटोल से मक्का के बीच स्थित क्षेत्र की मस्जिदों का रुख लगभग पश्चिम ही होगा। इस तथाकथित मस्जिद के ऊपर के खण्ड में अनेक कमरे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से वे बन्द हैं। मस्जिद से आगे पश्चिम एवं उत्तर कोने पर बावली बुर्ज के समान ही एक अन्य बुर्ज है, जिसका नाम बसई बुर्ज है। ताजमहल परिसर में इन दोनों बुर्जों के अतिरिक्त चार अन्य इन्हीं के समान बुज्र हैं, परन्तु बावली एक में ही है। बसई बुर्ज के अन्दर जोने का मार्ग सामान्य जन के लिये बन्द है। इस मार्ग में सीढ़ियों द्वारा लगभग ६० फीट नीचे जाकर एक द्वार मिलता था जिसे अब बन्द कर दिया गया है (देखें संग्राहालय का वर्णन)। इसी प्रकार का दूसरा मार्ग उत्तर पूर्व कोने के बुर्ज से जाता था तथा यमुना तट पर खुलता था। इस द्वार की चौखट की लकड़ी को तेज धार वाले चाकू से छील कर कार्बन परीक्षण के लिये अमरीका भेजा गया था जिसका वर्णन आप कई स्थानों पर पढ़ चुके हैं हैं। अब ऊपर से बुर्ज के द्वार तो तालों एवं बोल्ट के द्वारा बन्द कर दिये गये हैं, यद्यपि उनकी स्थिति अभी भी भासमान है तथा संग्रहालय के कई चित्रों में उन्हेंस्पष्ट देखा जा सकता है। अब पाठक ताजमहल परिसर में धूप में घूमते-घूमते थक गये होंगे अतः छाया की तलाश में संगमरमर से बने मुखय भवन में चलते हैं। यहाँ पर पाठक ध्यान दें कि जिस विशाल प्रांगण में वे चल रहे हैं, वह तथा अब तक देखे सारे भवन, मार्ग, परकोटे, बुर्ज, बावली आदि सभी लाल पत्थर के बने थे। संगमरमर का बना भवन तो अब सामने है। यहाँ पर दो बातों पर ध्यान दें। जहाँ पर आप जूते उतार रहे हैं, वह स्थल बराबर के बगीचे से लगभग चार फीट ऊँचा है। आधुनकि बगीचा भी लार्ड कर्जन ने चार फीट ऊँचा कराया था अर्थात् शाहजहाँकालीन भूमि से आप आठ फीट ऊपर जूते उतार रहे हैं। दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि अब आपके सामने जो संगमरमर का भवन है, उसकी बैठक के ऊपर तक पहुँचने के लिये आपको अभी २४ सीढ़ियां और चढ़नी हैं अर्थात् जब आप ऊपर प्रांगण में पहुँचेगे उस समूय आप २४ द्द्र ण्८ ़ ८ त्र २७ण्२ फीट शाहजहाँकालीन भूमितल से ऊपर होंगे, कम से कम आज के भूमितल की तुलना में २३.२ फीट ऊपर होंगे। आइए, ऊपर चढ़ें। कुछ विद्वानों का विचार है कि इन्हीं सीढ़ियों में बैठकर के अन्दर जाने का मार्ग छिपा है तथा वहाँ पर ठोंकने से खालीस्थान की ध्वनि आती है। चढ़ कर ऊपर पहुँचिये। सामने लगभग ७० फीट की दूरी पर १८७ फीट के वर्गाकार (५७ मीटर वर्ग) क्षेत्र में विशाला ताजमहल का भवन खड़ा है जिसके चारों कोणों पर ३७.५ फीट (१०.२ मीटर) की भुजाएं इसे एक अष्टकोणीय भवन का स्वरूप प्रदान करती हैं जिसकी बड़ी चार भुजाएं १३९.५ फीट की तथा शेष चार भुजाएं ३७.५ फीट की हैं। संगमरमर के इस पूरे प्रांगण का माप ३२८ फीट के वर्ग का है, जिसके चारों कोनों को भी काट कर उन्हें अष्टकोणीय क्षेत्र बनाया गया है। इन चारों कोणों पर चार स्तम्भ खर्ड़े हैं (न कि मीनारें) जैसी कि आम धारण है। स्तम्भ एक स्वतन्त्र इकाई होती एवं उसका किसी भवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता, जबकि मीनार भवन का ही अंग होती है तथा भवन समाप्त होने पर ऊपर उठाई जाती है। इस प्रकार मीनार सदैव ही भवन से ऊँची होती है, जबकि स्तम्भ का भवन से कोई सम्बन्ध न होने के कारण भवन की ऊँचाई से भी इसका कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी पाठकों की जिज्ञासा शान्त करने के लिये यह स्पष्ट कर दिया जाए कि इन स्तम्भों की भूमितल से ऊँचाई (कलश सहित) १६२ फीट ३ इंच है जो मुखय भवन से काफी कम है। मुखय भवन का कलश भूमितल से२४३ फीट ऊँचा है। अब हमारे सामने शुभ्र मुखय भवन है। इसकी शोभा एवं वास्तुकला इतनी भव्य है कि दर्शक इसे चाहे जितनी बार देखे चमत्कृत हो जाता है। इसको निहारते-निहारते वह थकता नहीं है तथा दौड़-दौड़ कर एक-एक फूल पत्ती को देखने में ऐसा लीन हो जाता है कि अपना आपा खो बैठता है। फलस्वरूप जिस समय वह नीचे की तथाकथित सत्य कब्र देखने जाता है उस समय उसे ध्यान ही नहीं रहता है कि वह ऊपर भी चढ़ा था। यही कारण है कि प्रत्येक दर्शक सदैव इसी भ्रम में रहताहै कि नीचे की कब्र भूमि के अन्दर तथा ऊपर की कब्र भूमितल पर स्थित हे। कब्रें सदैव ही भूमि में गढ्डा खोद कर शव को रखने के बाद भूमि तल पर नाई जाती हैं अतः उसे यह ज्ञान ही नहीं हो पाता कि इनमें से कोई भी कब्र भूमि के ऊपर है। इस प्रकार वह झूठ को सत्य समझ लेता है। अभी पांच सीढ़ियों और चढ़िये और आप ताजमहल के मुखय भवन में प्रवेश पा जायेंगे ओर उससे पहले द्वार के ऊपर का पुष्प तथा उसमें बना त्रिदल देखना न भूलिए। |