मुखय भवन के मुखय द्वार के अन्दर जाते ही चारों ओर शुभ्र पत्थर पर अनेक मनमोहक कलाकृतियाँ जो स्पष्ट हिन्दू कलाका अंग हैं, परन्तु उस ओर ध्यान न देते हुए हम सामने के कमरे में प्रवेश करेंगे। हमारे सामने भूमि में द्वार है जिसकी सीढ़ियों से उतर कर हम लोग नीचे वाली तथाकथित असली कब्र वाले कक्ष में पहुँच सकते हैं। हमारे सामने दूसरा द्वार है जिसमें प्रवेश कर हम नकली कब्रों के कक्ष में जा सकते हैं। हमारे दाहिने तथा बाई ओर भी द्वार हैं (जो अब बन्द रहते हैं) जिनमें प्रवेश कर हम कब्र वाले कक्ष की प्रदक्षिणा कर सकते हैं और यदि कुछ विद्वानों का अनुमान सत्य है कि इस कक्ष में मूर्ति स्थापित थी तो यह परिक्रमा मार्ग समीचीन ही प्रतीत होता है। अब एक चमत्कार देखने के लिए तत्पर हो जाइये। सामने के द्वार जिसमें प्रवेश कर हम कब्र वाले कक्ष में जाने को प्रस्तुत हैं, के दाहिनी ओर एक बड़ा पत्थर है। उस पर एक गुड़हल के वृक्ष की आकृति उकेरी गई है। उसके पुष्प को ध्यान से देखिये। पुष्प पंखुड़ियों द्वारा स्पष्ट 'ऊँ' लिखा गया है। जितने भी पुष्प आड़े-टेढ़े हैं सभी के द्वारा 'ऊँ' को अभिव्यक्त किया गया है। अब इसके सामनेवाला पत्थर जो आपके दाहिने पीठ पीछे है, साथ ही अपने सामने द्वार की बाईं ओर वाला) भी देखिये इन सभी पर भी पुष्प 'ऊँ' लिखा है। अन्तर केवलइतना है कि पीछे वाले पत्थरों का 'ऊँ' दर्पण प्रतिबिम्ब है अर्थात् उल्टा है, यदि दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब देखा जाए तभी वह सीधा 'ऊँ' दिखाई देगा। इस परिक्रमा मार्ग में सोलह इसी प्रकार के पत्थर हैं और सभी के प्रत्येक पुष्प में अनेक 'ऊँ' लिखे हैं। एक अन्य बात स्पष्ट कर दूूं। पहले प्रवेश द्वार पर जब गणपति (गणेश) की अनेक मूर्तियाँ दिखाई गई थीं तो अनेक दर्शकों को सन्देह रह गया था कि इन्हें गणेश जी की मूर्तियां माने या नहीं। बाद में केले के पत्ते एवं तोरण आदि देखकर सकुचाते हुए ही उन्होंने स्वीकार किया था कि यह गणपति की मूर्तियां हैं, परन्तु यहाँ पर तो लेखक ने किसी दर्शक को यह बताया ही नहीं कि उन्हें क्या दिखाने जा रहा हूँ। मात्र 'ऊँ' के पास ऊँगली रखकर पूछा कि यह क्या है ? आश्चर्य कि आज तक सभी दर्शकों ने सस्वर स्वीकार किया कि वे स्पष्ट 'ऊँ' लिखा देख रहे हैं। अनेक दर्शकों ने आश्चर्य व्यक्ति किया कि अब तक अनेक बार ताजमहल आने पर भी यह स्पष्ट 'ऊँ' उनके ध्यान में क्यों नहीं आया था ? वहीं पर ड्यूटी देता उत्तर प्रदेश का एक पुलिसकर्मी तो भैंचक्का रह गया कि पिछले छः मास में उसे यह 'ऊँ' क्यों नहीं दिखाई दिया तथा गाइड नेकिसी भी दर्शक को यह क्यों नहीं दिखाया ? यहाँ पर दर्शक कुछ शंकाएं उपस्थित करते हैं जो स्वभावतः मननीय पाठकों को भी हो रही होंगी। उनके अनुसार शाहजहाँ अकबर के समान ही हिन्दू मुस्लिम (सुलह कुल) गंगा-जमुनी संस्कृति का पोषक था, अतएव उसने जानबूझ कर हिन्दुओं की तुष्टि के लिये यह 'ऊँ' लिखवाये थे। यदि ऐसा होता तो शाहजहाँ ताजमहल के आधे भाग में कुरान तथा आधे भाग में गीता लिखवाता। यदि चारों ओर एक-सी ही लिखवट होने की समस्या होती तो बीच के द्वारा पर छोटे अंकों वाली कुरान के स्थान पर गलता लिखाता तथा इस बची हुई कुरान को मस्जिद पर लिखा देता। इसी को सम्यक बनाने की दृष्टि से पूर्व वाले भवन जिसे 'जवाब', 'जमातखाना' कहते हैं पर गीता का शेष भाग लिखा देता। पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया यह सिद्ध करता है कि गंगा-जमुनी संस्कृति का सिद्धान्त शाहजहाँ पर लागू नहीं होता है। कुछ अन्य दर्शक तर्क देते हैं कि ताजमहल बनाने वाले कुछ अन्य कारीगर जो हिन्दू रहे होंगे उन्होंने चुपचाप इन पत्थरों का निर्माण किया होगा। इस प्रश्न पर पहले भी विचार किया जा चुका है और स्थिर कियाजा चुका है कि कोई निर्माण कैसा हो, यहनिर्माता तय करता है, न कि शिल्पी ! इन सभी पत्थरों को ध्यान से देखने से स्पष्ट हो जाता है कि सरसरी दृष्टि से देखने पर तो यह एक जैसे प्रतीत होते हैं, परन्तु सभी में स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता है। इससे सिद्ध होता है कि इन सभी पत्थरों को अलग-अलग शिल्पियों ने बनाया है और यह सभी हिन्दू थे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ई. बी. हैवल ने अपनी पुस्तक 'हैन्डबुक टु आगरा एण्ड दि ताज' के पृष्ठ ३१-३३ पर ताजमहल के कारीगरों की एक सूची दी है, जो उन्होंने राष्ट्रीय पुस्तकालय कलकत्ता में रखी हुई एक फारसी की पुस्तक से ली है। इस सूची में ताजमहल पर कार्य करने वाले विशिष्ट शिल्पियों के नाम तथा उनके द्वारा प्राप्त वेतन को दर्शाया गया है। इस सूची में पत्थर में रंगीन फूल बनाने वाले चारों पच्चीकार कन्नौज के हिन्दू थे तथा पत्थर पर फूल बनाने वाले पांच शिल्पियों में से तीन हिन्दू थे। यदि वह शिल्पी अपनी बुद्धि का प्रयोग करने को सर्वथा स्वतन्त्र होते और यह भवन शाहजहाँ ने सचमुच इन्हीं शिल्पियों द्वारा बनवाया होता तो उसमें ७७प्रतिशत भाग में हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र एवं 'ऊँ' आदि लिखा मिलता। स्पष्ट है कि 'ऊँ' शाहजहाँ ने नहीं लिखवायाथा तथा यह 'ऊँ' लिखा स्थल या तो उसके ध्यान में नहीं आया अथवा सारे भवन की परिक्रमा को तुड़वाना उसने आवश्यक नहीं समझा था, क्योंकि कुरान लिख जाने के पश्चात् सम्भावित हिन्दू विरोध दब चुका होगा। अभी भी कुछ सभ्रान्त पाठक शाहजहाँ की मिली-जुली संस्कृति में विश्वास करते होंगे। वे उसे सभी धर्मों में निष्ठा रखने वाला प्रेमी, दयालु, धर्म सहिष्णु तथा अन्य मानवीय गुणों से विभूषित कला पारखी एवं कला पोषक मानते हैं। शाहजहाँ एक कट्टर सुन्नी मुसलमान, असहिष्णु, क्रूर, हृदयहीन और दुष्ट शासक था जिसने अपने स्वार्थ एवं विलासिता के लिये अपने परिवार एवं सम्बन्धियों पर भी दया नहीं की थी। नीचे कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं : (क) जैसा कि पहले बताया जा चुका है अर्जुनमन्द बानों बेगम ने मरते समय शाहजहाँ से अपने परिवार-जनों तथा अपनी संतान के प्रति दया एवं करुणा की भीख मांगी थी। क्यों ? वह शाहजहाँ के स्वभाव से १८ वर्ष से भली-भांति परिचित थी। कुछ वर्ष पहले ही उसने उसकी (शाहजहाँ की) हृदय-हीनता स्वयं देखी थी जब वह अपने सगे भाईयों को मारकर गद्दी पर बैठा था। उस गद्दी के लिये उसने अपने पिता से भी विद्रोह किया था। (ख)जो पाठक शाहजहाँ को मुमताज का प्रेमी होने के नाते नम्र स्वभाव का मानते हैं, उनकी सूचना के लिये इतना ही पर्याप्त है कि शाहजहाँ के हरम में मुमताज महल के अतिरिक्त भी हजारों रानियां एवं रखैलें थीं। शाहजहाँ परले सिरे का चरित्रहीन एवं लम्पट था। उसके अनेक मुखय सरदारों की पत्नियाँ-पुत्रियाँ भी शाहजहाँ की अंकशायिनी हो चुकी थीं। कई विदेशी लेखकों ने तो शाहजहाँ के कुत्सित सम्बन्धें का वर्णन उसकी सगी कन्याओं को लेकर भी किया है। (ग) अपने सगे पुत्रों से शाहजहाँ के सम्बन्ध कभी अच्छे नहीं रहे। किसी करुणावश नहीं अपितु यह उसकी कठिनाई थी जिसके कारण युवराज होने के कारण उसे दारा शिकोह को अपने साथ रखना पड़ा। अन्य राजकुमारों को उसने अपने से पर्याप्त दूर रखा था। (घ) गंगा-जमुनी संस्कृति, सुलह कुल की मर्यादा एवं धार्मिक सहिष्णुता एवं हिन्दू पर प्रेम आदि विषयों पर भी एक दृष्टि डाल लें। एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। जदुनाथ सरकार द्वारा लिखित 'हिस्टरी ऑफ औरंगज़ेब' संस्करण १९१२ खण्ड एक, पृष्ठ ६२-६३ 'काश्मीर के एक जिले भीमबार में हिन्दुओं तथा मुसलमानों में वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं तथा उनमें यह प्रथा है कि पत्नीकी मृत्यु से हो जाने पर (महिला के) पिता की जाति के अनुसार जलाया अथवा दफनाया जाता है (चाहे महिला का पति मुसलमान हो या हिन्दु), परन्तु अक्टूबर १६३४ में शाहजहाँ ने इस प्रथा को समाप्त कर आदेश दिये कि प्रत्येक हिन्दू जिसने मुस्लिम महिला से विवाह किया हो वह या तो मुसलमान बन जाए और उस महिला से पुनः विवाह करे अथवा उस महिला को छोड़ दे जिससे उसका किसी मुसलमान से विवाह किया जासके', इस आदेश का कड़ाई से पालन किया गया। (देखें अब्दुल हमीद लाहोरी लिखित बादशाहनामा पृष्ठ ५७) सुलहकुल की वचनों द्वारा ही नहीं कर्म द्वारा भी पालन करने वाले भीमबार के हिन्दुओं पर आज के इतिहासकारों द्वारा सुलहकुल से परिपूर्ण माने जाने वाले शाहजहाँ ने क्या भयानक अत्याचार किए ? क्या इसी प्रकार का आदेश भीमबार के उन मुसलमानों को भी दिया गया जिनका विवाह प्रथानुसार हिन्दु कन्याओं से हुआ था ? शाहजहाँ के पक्षधर क्या अब भी ताजमहल स्थित सारे हिन्दु अलंकरण एवं चिन्ह शाहजहाँ द्वारा बनाये गये सिद्ध करेंगे, क्योंकि उनके अनुसार वह धर्म सहिष्णु था। उस धर्म सहिष्णु ने जब 'ऊँ' लिख दिया तो तथाकथित 'जवाब' (पूर्वी भवन) में मन्दिर क्यों न बना दिया। एकओर मस्जिद (पश्चिम में) दूसरी ओर मन्दिर (पूर्व में) बीच में ताजमहल जिसमें 'ऊँ' तथा कल्याण स्तम्भम् और कब्र एवं कुरान एक साथ। तभी शाहजहाँ के शर्म सहिष्णु होने के तर्क स्वीकार्य था। था तो एक ही उदाहरण पर्याप्त, परन्तु अभी भी मेरे कुछ मित्र इसे मामूली घटना मानकर परिस्थितियों आदि को दोष देते हुए सम्भवतः सहमत एवं सन्तुष्ट नहीं हुए हैं, अतः उनकी सेवा में बादशाहनामा से ही एक अन्य आखयान प्रस्तुत है : 'महान् सम्राट् के यान में लाया गया कि पिछले शासन के समय में बनारस जो धर्मनिन्दकों (काफिरों-हिन्दुओं) का गढ़ है, में बहुत से मूर्तिमन्दिर बनने प्रारम्भ हो गये थे, परन्तु अपूर्ण रह गये थे। वे धर्मनिन्दक अब उन्हें पूरा करने का विचार खते हैं। महान् सम्राट् जो धर्म में इमान रखने वाले हैं, ने आदेश दिया कि बनारस और उनके शासन के अन्तर्गत आने वाले प्रत्येक स्थान पर सभी मन्दिर गिरा दियें जाएं। अब इलाहाबाद प्रान्त से सूचना मिली है कि बनारस जिले में ७६ मन्दिर नष्ट कर दिये गये।' आगरा की गद्दी पर बैठा हुआ मुगल सम्राट जो सुदूर बनारस में बन रहे मन्दिर सहन न कर सका, वह क्या अपने द्वारा आगरा में बनाये गये मकबरे में गणपति स्थापितकरेगा ? ओम् लिखोगा ? शंख, सीपी, नाग श्रृंखला, घंटियाँ तथा कदली तोरण से अलंकृत करेगा ? क्या वह कमल दल सहित कलश, चन्द्रमा सहित अमृत घट, आम्रपत्र एवं नारिकेल को आकाशचुम्बी भवन पर अभिषिक्त करेगा ? क्या ऐसा सम्राट् प्रत्येक द्वार के ऊपर एक त्रिदल पुष्प तथा द्वार के दोनों ओर सूर्य यन्त्र तथाभवनों के कक्षों के मध्य सूर्य चक्र स्थापित करेगा ? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ऐसा नरेश कब्र के चारों ओर अनेकानेक पवित्र कल्याण स्तम्भों का निर्माण करायेगा ? क्या बगीचे में कनरे, जुही, चम्पा, नई मौल श्री एवं बिल्वपत्रों के वृक्ष लगवायेगा जो सभी शिव पूजा के योग्य हैं एवं अनेक प्रकार के फलदार वृक्ष भी लगवायेगा ? मकबरे में फलों के रसास्वादन का प्रबन्ध है न आमोद प्रमोद की पूर्ण व्यवस्था तभी तो कब्र के पास के नाम (देखिये बादशाहनामा की पंक्ति २८ रसयुक्त वाटिका से घिरा हुआ) जिलोखाना, महेमानखाना आदि सार्थक है। पाठकों को याद दिला दूं कि हम लोग बहुत देर से 'ऊँ' के सम्मुख खड़े हैं। आइये, द्वार में प्रवेश करते हैं। यह कक्ष भी अष्टकोण हैं, जिसकी प्रत्येक भुजा २४ फुट तथा कर्ण ५८ फीट हैं। सामने संगमरमर की अष्टकोणीय जाली है।जिसकी प्रत्येक भुजा १२ फीट तथा कर्ण लगभग २९ फीट है। इस जाली में एक द्वार बना है जिसमें प्रवेश कर हम लोग कब्र तक जा सकते हैं। जहाँ पर हम खड़े हैं वहाँ पर द्वार में अन्दर की ओर अष्टकोण संगमरमर के शिल्प अलंकृत कल्याण स्तम्भ बने हुए हैं। यह स्तम्भ विशिष्ट हिन्दू शैली में हैं तथा इन्हें प्राचीन हिन्दु मन्दिरों विशेष कर दक्षिण भारत के मन्दिरों में देखा जा सकता हैं वहाँ के भक्त दर्शक इन 'कल्याण स्तम्भम्' को अत्यन्त पवित्र मानते हैं तथा अतीव श्रद्धापूव्रक इनका नमन करते हैं तथा भक्तिपूर्वक इनका आलिंगन करते हैं इनके बिना दक्षिण भारत में किसी मन्दिर की कल्पना तक नहीं की जा सकती। जिस कक्ष में हम लोग खड़े हैं उसकी ऊँचाई ८० फीट है, कृया ऊर देखिये। केन्द्र में आको सूर्य चक्रय दिखाई पड़ेगा जिसकी रश्मियों के रू में अनेक त्रिशूल खिले हुए हैं। संगमरमर की जाली में ्रवेश कर सामने रानी तथा बगल में सम्राट् की कब्र हैं। दोनों पर कुरान लिखी है, परन्तु कुछ लोगों का कथन है कि यह सम्राट् तथासम्राज्ञी का यशोगान है। ध्यान दीजिये लिपि गोलाकार है, न कि लम्बाई लिये हुए जैसी बाहर कुरान में आप देख आये थे। यदि कुछ लोगों का यह कथन सत्यहै कि यहाँ पर शिव मन्दिर था तो पंच परिक्रमा की कल्पना भी साकार होती है। पहली जाली के अन्दर, दूसरी जाली के बाहर, तीसरी उन कमरों में से होकर जिसमें आपने 'ऊँ' देखा था, चौथी भवन के बाहर तथा पांचवीं संगमरमर के भवन से उतर का लाल पत्थर के फर्श पर अर्थात् संगमरमर के भवन के चारों ओर। |