पाठकों । अभी तक आपने न केवल ताजमहल का पूर्ण रूप से भ्रमण किया अपितु विसंगतियों का अवलोकन भी किया है। इन विसंगतियों के वर्णन में यथासम्भव कृपणता ही बरती गई है। यदि सभी विसंगतियों का विस्तार से वर्णन किया जाय तो कई ग्रन्थ तैयार हो सकते हैं। अभी पाठकगण ताजमहल परिसर के अन्दर ही घूमें हैं। यदि उनके पास समय का अभाव न हो तो उन्हें सलाह देता हूँ कि एक चक्कर ताजमहल की बाह्य दीवार के साथ-साथ अवश्य लगावें। उन्हें स्वयं अनेक बातों का ज्ञान बिना बताये ही हो जाएगा, क्योंकि अब तक उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन हो चुका होगा। इसके अतिरक्ति स्थान-स्थान पर बने कंगूरों, बुर्जियों तथा लाल पत्थर से बने भवनों, उनके ऊपर उत्कीर्ण पच्चीकारी, नींव के पास चबूतरों के किनारों पर तथा दीवारों पर बनी चित्रकारी-पच्चीकारी को भी ध्यानपूर्वक देखें तो उन्हें पूरा परिदृश्य ही पूर्व मुगलकालीन प्रतीत होगा। अब इस अन्तिम अध्याय तक आकर हम लोग अब तक के अध्ययन का विश्लेषण करेंगे। प्राप्त विवरणों के आधार पर कथानक कुछ इस प्रकार बनता है। आगरा नगर के दक्षिण में एक आकाश चुम्बी बड़े गुम्बज़ एवं फलदार बाग से युक्तएक भवन था जो राजा मानसिंह के महल के नाम से प्रसिद्ध था। डच ईस्ट इन्डिया कम्पनी के कर्मचारी फ्रान्सिसको पेलसर्ट ने सन् १६२६ की अपनी रिपोर्ट (रिमोन्स्ट्रैन्टे) में इसका वर्णन किया है। राजा मानसिंह के पौत्र (कुछ इतिहासकारों के अनुसार प्रपौत्र) मिर्जाराजा जयसिंह को आमेर का राज्य सन् १६२१ ई. में मिला तथा जनवरी सन् १६२३ में ही इन्हें शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के विद्रोह को समाप्त करने के लिये नूरजहाँ ने नियुक्त किया। इनकी अनुपस्थिति में खुर्रम ने आमेर लूटा, परन्तु विद्रोह असफल होने के कारण दोनों में युवावस्था से ही गाँठ पड़ गई। सन् १६२८ ई. में शाहजहाँ गद्दी पर बैठा और सन् १६३१ में उसकी रानी अर्जुमन्द बानों बेगम का बरहानपुर में देहान्त हो गया। ताजमहल के परिप्रेक्ष्य को यदि छोड़ दें तो अन्यत्र कहीं भी शाहजहाँ अर्जुमन्द का विंवाह पूर्व अथवा विवाहेत्तर प्रेम-प्रसंग का वर्णन नहीं है। समकालीन साहित्य में यह भी वर्णन नहीं है कि सम्राज्ञी ने अपनी याद सुरक्षित रखने के लिए सम्राट् से एक भवन बनवाने का वचन लिया था। रानी के शव को ताप्ती नदी के तट पर दफना दिया जो ज़ैनाबाद (बराहनपुर) के नाम से जाना जाता है। बरहानपुरवासी आज भी कहतेहैं कि रानी की कब्र को खोदा नहीं गया है, परन्तु बादशाहनामा के अनुसार शव को आगरा लाया गया था जो ८ जनवरी सन् १६३२ ई. को आगरा पहुँचा। इसको दफनाने के लिये राजा मनसिंह का भवन जो राजा जयसिंह के पास था, चुना गया। 'वा पेश अज एैन मंजिल ए राजा मानसिंह बूद वदारी वक्त बा राजा जयसिंह।' इस भवन के बदले उन्हें सरकारी भूमि का एक टुकड़ा दिया गया। 'दर अवाज़ आन आली मंजिल ए अज़ खलीसा ए शरीफाह बदू मरहत फरमूदन्द'। अगले वर्ष 'साले आयन्देह' रानी के शव को राजकीय आदेश के अन्तर्गत राजधानी के अधिकारियों ने 'बा मुतसद्दीयान ए दारूल खिलाफह बा हुक्मे' उस आकाश चुम्बी 'तुर्बत ए फलक' महान् भवन में, जिस पर गुम्बज़ है 'वा इमारत ए आलीशान वा गुम्बजे' दफन कर दिया तथा इस पर चालीस लाख रुपया खर्च आया, 'आफरीन चालीस लाख रुपया अखरजते'। इस कथन से कई बातें सुस्पष्ट हो कर सामने आती हैं : १. रानी का शव दफनाने के लिए राजा मानसिंह का महल लिया गया था। २. महल को तोड़ कर पुनः बनाने का कोई वर्णन नहीं है। ३. दफनाने के समय सम्राट् स्वयं उपस्थित नहीं था, अपितु राजाज्ञा से कर्मचारियों ने (बा हुक्मे वा मुतसदि्दयान) शव को दफन किया।(इस सन्दर्भ में शाहजहाँ के असीम प्रेम एवं दिये हुए वचन पर विचार करें) ४. शव को बुरहानपुर से लाने में पुत्र शुजा का वर्णन है, परन्तु दफनाते समय किसी पुत्र का भी वर्णन नहीं है। ५. उस समय के दरबारी लेखक अपने बादशाह की यशोगाथा में क्या कुछ नहीं लिख डालते थे, परन्तु इतना महान् भवन बनाने के बारे में मात्र २१ पंक्तियाँ ही लिखी गई। कारण स्पष्ट है। शव को लाया गया और महल में दफना दिया गया, सो लिख दिया। बादशाह नामा के १६०० पृष्ठों में प्रत्येक वर्ष की घटनाओं का वर्णन है। यदि अगले वर्षों में कुछ हुआ होता तभी तो लिखा जाता। इस सारे वर्णन से स्पष्ट है शाहजहाँ ने कभी यह चाहा ही नहीं कि उसके नाम से ताजमहल बनाना प्रचारित हो। वह तो डंगे की चोट पर कहता है कि राजा मानसिंह का महल दफनाने क लिये चुना, लिया एवं शव को दफना दिया। बस, आगे कुछ नहीं। यदि वह सच्चा एवं ईमानदार होगा तो आज के इस दुष्प्रचार को सुनकर उसकी आत्मा को कितना कष्ट होगा कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था। इसके पश्चात् सन् १६५२ के धौलपुर से औरंगजेब द्वारा शाहजहाँ को लिखे पत्र से और भी स्पष्ट हो जाता है। औरंगज़ेब ने ताजमहल का जो वर्णनकिया है वह पुराने भवन पर तो सटीक बैठता है, परन्तु उस भवन पर कतई नहीं जो अभी बन ही रहा है, (टैवर्नियर के अनुसार यह सन् १६५३ में पूरा हुआ) पहले यह एक राजा का निजी महल था। यह चारों ओर से मिट्टी की पहाड़ियों से घिरा था एवं जनता के लिये दुर्लभ था। शाहजहाँ ने पहाड़ियों को गिरवा दिया एवं इसे जनता के लिये खोल दिया, विशेष कर विदेशियों को आमन्त्रित किया। इस प्रकार इसकी खयाति देश-विदेश में हुई। कवियों एवं लेखकों को अपनी लेखनी उठाने के लिये विषय मिल गया। कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे, किसी ने प्रेम की कल्पना की तो किसी ने दिये हुए वचन को पकड़ा। किसी ने विश्व प्रसिद्ध कवियों से मॉडल मंगाने के, तो किसी ने सारे संसार से मूल्यवान पत्थर मंगाने का वर्णन किया। किसी ने तो कलाकारों के नामों की सूची ही प्रस्तुत कर दी। परन्तु किसी का वर्णन किसी से सामंजस्य स्थापित नहीं करता। करे भी कैसे ? सभी कल्पना की उड़ान में एक दूसरे से आगे जाने की स्पर्धा में जो हैं। यूरोपीय लेखक सारा श्रेय यूरोपियनों को देना चाहते हैं तो मुसलमान लेखका मुसलमानों के प्रति पर्याप्त सचेष्ट हैं। इस अफरा-तफरी में सारा का सारागढ्डमढ्ड-सा हो गया प्रतीत होता है। रानी के देहान्त की तारीख कई वर्षों में फैली है। दफनाने की कोई तिथि (सही व गलत) उपलब्ध ही नहीं है। ताजमहल निर्माण का काल १०-१२ वर्ष से २२ वर्ष तक बताया जाता है तथा इस पर व्यय हुआ धन चालीस लाख से २ करोड़ रुपये तक आँका गया है। ऐसे में सत्य का अन्वेषण करना एक दुष्कर कार्य है। इसके लिये महान् शोध, श्रम तथा समय की आवश्यकता है। जे. बी. टैवर्नियर पर अत्यधिक विश्वास किया गया, परन्तु वह परले सिरे का झूठा निकला। उसके अनुवादक डॉ. बॉल ने ही उसे अविश्वसनीय माना। २५ फरवरी १६३३ से पहले पीटर मुण्डी ने ताजमहल देखा एवं सराहा। ८ जनवरी सन् १६३२ को शव आगरा आया। १ जुलाई १६३२ के बाद कभी (अगले वर्ष) उसे दफनाया गया। यदि वहाँ पर महल न होता तो वह स्थल यमुना में बाढ़ में डूबा होता। बाढ़ का पानी तथा दलदल अगस्त तक समाप्त हुआ होगा। फिर कुंओं का निर्माण होना प्रारम्भ हुआ जिन पर नींव रखी जानी थी और जिनकी संखया ४२ बताई जाती है। अगस्त १६३२ से फरवरी १६३३ तक भवन बन गया। क्या कहने हैं ? अरब में अलादीन के पास चाहें जादुई चिराग कहानी के रूप में ही रहा हो, परन्तु शाहजहाँ के पास अवश्यथा। पीटर मुण्डी १ जनवरी १६३१ को आगरा आया था तथा १७ दिसम्बर १६३१ को यहाँ से गया। रानी का देहान्त २० जून १६३१ को हुआ था। सम्राट् की परम प्रिय रानी के निधन का समाचार इसी बीच कभी आया होगा, परन्तु पीटर मुण्डी समेत किसी भी विदेशी ने उस दुखद समाचार अथवा प्रजा द्वारा शोक मनाये जाने का कोई वर्णन नहीं है। वर्णन कहाँ से हो। हरम में ५००० रानियाँ थीं। इसके अतिरिक्त अकबर एवं जहाँगीर की विधवायें भी थीं। हर वर्ष सैकड़ों मरती होंगी। कोई कहाँ तक शोक मनाए। पीटर मुण्डी दूसरी बार आगरा १६ जनवरी १६३२ को आया तथा ६ अगस्त १६३२ तक रहा था। इसी बीच किसी समय रानी को दफनाया गया होगा। यदि इसका कोई समारोह हुआ होता तो वह अवश्य लिखता। उसने यह अवश्य लिखा है कि शाहजहाँ १ जून सन् १६३२ को आगरा आया था, पर शव तो बादशाहनामा के अनुसार अगले वर्ष (१ जुलाई १६३२ के बाद) बादशाह की अनुपस्थिति में दफनाया गया अर्थात् गुपचुप रूप से दफनाया गया था। पीटर मुण्डी तीसरी बार आगरा २२ दिसम्बर १६३२ को आया तथा २४ फरवरी १६३३ तक यहाँ रहा था। अतः इस २ मास के प्रवास-काल में उसने ताजमहल को अपनी आँखों से देखा था। इससे सिद्धहोता है कि सन् १६२६ से सन् १६३२-३३ में ताजमहल था तथा शाहजहाँ ने उसे बनाने का दावा कभी नहीं किया। |